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~वसीम अकरम

मौलिक अधिकार की रोशनी दिखाती किताब

हमारे समाज की संरचना ऐसी है जिसमें निजता, स्वच्छंदता और मौलिक अधिकारों की चाबी अक्सर किसी-न-किसी और के हाथ में होती है। स्वच्छंदता की अवधारणा को अश्लील साबित करने में तो समाज ने कोई कसर ही नहीं छोड़ी है। यह विडंबना ही है कि इसी समाज ने अपने लिए सत्ता की एक ऐसी संरचना भी बनाई है जो मौलिक अधिकारों का हनन करने में ज़रा भी नहीं हिचकती। बरसों तक एक क़ानून की शक्ल में धारा 377 का बने रहना इस बात की तस्दीक है कि कोई क़ानून एक व्यक्ति के मौलिक अधिकार से कहीं ज़्यादा अहमियत रखता है। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस धारा को ख़त्म करने के बाद LGBTQ समुदाय को उसका मौलिक अधिकार मिला, क्योंकि प्रेम किसी ज़ेंडर का मोहताज नहीं होता। ग़ौरतलब है कि LGBTQ समुदाय के तहत लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर आते हैं।

राजकमल प्रकाशन के उपक्रम राधाकृष्ण प्रकाशन से आई अमित गुप्ता की किताब ‘देहरी पर ठिठकी धूप’ LGBTQ समुदाय को समर्पित एक ऐसी ‘समलैंगिक प्रेम कहानी’ है जिसके मूल में दैहिक अधिकार जैसे मौलिक अधिकार का प्रभावी होना ज़रूरी है। श्लोक और अनुराग का एक-दूसरे से प्रेम करना न सिर्फ़ उनका मौलिक अधिकार है, बल्कि दैहिक अधिकार भी है। श्लोक रिश्ते में अनुराग का जीजा है, लेकिन प्रेम कहां किसी बंधन का मोहताज होता है! देहरी में जो ‘देह’ है न, उसे मौलिक अधिकार की ‘धूप’ चाहिए जो बाहर ‘ठिठकी’ हुई थी। धारा 377 के अवैध घोषित होने ने उस ठिठकी हुई धूप को जैसे ही देहरी के पार लाकर आंगन में रखा, तो पूरा घर निजता और स्वच्छंदता के मौलिक अधिकार भरी रौशनी से जगमगा उठा। मुझे शशिप्रकाश की कविता याद आ रही है- ‘उस पार है/ उम्मीदों और उजास की/ एक पूरी दुनिया/ अँधेरा तो सिर्फ़ देहरी पर है।’ दहलीज़ पर रखा चिराग़ एक उम्मीद का नाम है। और धारा 377 का ख़त्म होना एक चिराग़ की तरह है जो क़ानून की देहरी पर न जाने कब से ठिठका हुआ था। सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध मानने वाली धारा 377 को ख़त्म करते हुए अपने फ़ैसले में कहा कि ‘अगर कोई क़ानून किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो देश की अदालतें उस क़ानून को ख़त्म करने के लिए बहुमत की सरकार का इंतज़ार नहीं कर सकतीं।’ ज़ाहिर है, हमारा संविधान भी ऐसे क़ानूनों के ख़ि‍लाफ़ व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी लेता है, इसलिए मौलिक अधिकारों के हनन या उल्लंघन के मामले में कोई भी पीड़ित व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट में भी हाज़िर हो सकता है। हमारे संविधान के भाग तीन (अनुच्छेद 12 से लेकर 35 तक) में साफ़ लिखा है कि भारत के नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं जो स्टेट यानी सरकार द्वारा सीमित नहीं किए जा सकते। और शायद इसीलिए भारतीय संविधान के इस भाग तीन को ‘भारत का मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है। आप सबको मालूम होना चाहिए कि मौलिक अधिकारों का एक ऐसा दस्तावेज़ है मैग्नाकार्टा, जिसको इंग्लैंड के किंग जॉन ने सन् 1215 में वहां के सामंतों के दबाव में जारी किया था। ऐसा भी माना जाता है कि मैग्नाकार्टा एक नागरिक के मौलिक अधिकार से संबंधित सबसे पहला लिखित दस्तावेज़ है। सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले की गरिमा को बुलंद करती हुई समलैंगिक प्रेम कहानी में अमित गुप्ता ने समाज, क़ानून, प्रेम, रिश्ते, मर्यादा, देह की नैसर्गिकता और मन के भीतर छुपे नाज़ुक एहसास-ओ-जज़्बात के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर परतों को एक संवेदनशील लेखन-शैली में काग़ज़ पर उतारा है। दिल और दिमाग़ पर अपनी छाप छोड़ती जाती इस कहानी की रवानी देखकर ऐसा लगता है जैसे एहसास के रेशमी तागों से मन के सफ़ेद कपड़े पर बड़े ही सलीक़े से संवादों की ज़रदोज़ी कर दी गई हो। और किताब के वरक़ पर हाथ रखते ही वो संवाद पाठकों के ज़ेहन में जगह बनाकर बैठ जाते हैं। पूरी कहानी में किरदारों का कशमकश जारी रहता है, कि क्या सही है और ग़लत। एक तरफ़ समाज के अपने पारिवारिक ताने-बाने हैं तो दूसरी तरफ़ है श्लोक और अनुराग का समलैंगिक प्रेम। एक तरफ़ श्लोक की बीवी मीरा का दर्द है कि उसके पति ने इतने साल तक झूठ की बुनियाद पर उसके रिश्ते को चलाए रखा तो दूसरी तरफ़ मीरा के भाई अनुराग ने यह क्यों नहीं सोचा कि उसके इस कृत्य से उसकी बहन का घर बरबाद हो जाएगा। सही-ग़लत से जूझते हुए ये सारे कशमकश एक ऐसा औरा क्रिएट करते हैं जो अपने पढ़ने वाले को पूरी तरह से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। मगर सही और ग़लत के बीच की लकीर अक्सर बहुत ही धुंधली भी होती है, इसलिए कहानी पढ़कर किसी नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाज़ी एक तरह से इस कहानी के साथ नाइंसाफ़ी ही होगी। बहरहाल, अंग्रेजी और हिंदी, दोनों ज़बानों का अदबी सलीक़ा रखने वाले लेखक अमित गुप्ता के इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे फ़ारसी का एक शे’र याद हो आया– कुंद हमजिंस बा हमजिंस परवाज़ कबूतर बा कबूतर बाज़ बा बाज़ कबूतर कबूतर के साथ उड़ते हैं और बाज़ बाज़ के साथ। अंग्रेजी में भी इसे कुछ इस तरह कहा गया है– ‘Birds of a feather flock together,’ यानी एक तरह के परिंदे एक साथ ही उड़ते हैं। ज़ाहिर है, हमख़याल हों या हमजिस्म, लाइक माइंडेड हों लाइक च्वॉइसेज, वो तो एक साथ ही रहना चाहेंगे और यही उनका मौलिक और दैहिक अधिकार भी है। अब अनुराग भला श्लोक के साथ न रहे तो किसके साथ रहे? इसलिए इत्तेफ़ाक़न कोर्ट ने जब समलैंगिकता को अपराधमुक्त किया तो श्लोक ने अपनी बीवी मीरा के कहने पर तलाक देकर उसे अपने रिश्ते से आज़ाद कर दिया। तीनों के रिश्ते अपनी स्वच्छंदता, निजता और मौलिक अधिकार को प्राप्त हो गए। इससे ख़ूबसूरत क्या ही कुछ हो सकता है! इससे ख़ूबसूरत क्या ही कोई प्रेम हो सकता है! इससे ख़ूबसूरत क्या ही कोई ज़िंदगी हो सकती है! एहसास की शिद्दत में डूबकर अमित गुप्ता ने जिस ख़ूबसूरती से अनुराग और श्लोक के बीच के प्रेम को लिखा है, वह उन्हें एक बेहतरीन कथाकार ही नहीं बनाता, बल्कि मानवीय मूल्यों और मूल अधिकारों को लेकर उनका एक व्यक्तित्व भी गढ़ता है जिसमें प्रेम करने की आज़ादी सबसे अहम होती है। इस ऐतबार से एक लेखक का हस्सास होना बहुत मायने रखता है, क्योंकि तभी उसके लेखन से ठिठकी हुई धूप देहरी के पार जाकर आंगन में अठखेलियां करेगी और पूरे घर को रोशनी से भर देगी।


- वसीम अकरम किताब – देहरी पर ठिठकी धूप लेखक – अमित गुप्ता प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन (राजकमल प्रकाशन) दिल्ली मूल्य – 199 रुपये (पेपरबैक)






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