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"बांग्ला उपन्यासकार 'बनफूल' की जिंदगी की वास्तविक सच्चाई, उनकी रचनाएँ और हिंदी कनेक्शन''

Updated: Aug 5, 2022

पद्मभूषण में मूलनाम 'बालाइ चंद्र मुखोपाध्याय' है, न कि 'बनफूल' ! बिहार के मनिहारी (कटिहार) के हैं 'बनफूल'। हालांकि अब वे पार्थव्य लोक में रहे नहीं! वे पेशे से 'डॉक्टर', किन्तु साहित्य-साधक थे। वे बांग्ला के महान उपन्यासकार थे। हाटे बजारे, भुवन शोम आदि दर्जनों उपन्यासों के लेखक बोनोफूल व बनफूल ने कई लेख, कविताएँ भी लिखा है। सन 1975 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्म भूषण' से नवाजा। उस वर्ष 'पद्मभूषण' प्राप्तकर्त्ता की सूची में उनका नाम 10वें क्रम में था, किन्तु बोनोफूल व बनफूल नहीं, अपितु उनका मूल नाम 'बालाइ चंद्र मुखोपाध्याय' दर्ज है । पद्म अवार्ड की केटेगरी में उनका चयन 'साहित्य और शिक्षा' अंतर्गत हुआ था तथा वे 'बिहार' कोटे से चयनित हुए थे । यह कहना सरासर गलत है कि उनका चयन 'प. बंगाल' से था ! बिहार के 'बोनोफूल' को सादर नमन ! भारतीय डाकटिकट में उनका नाम 'बलाइ चांद मुखोपाध्याय' है। उनकी चचित कृतियां हैं- जंगम, रात्रि, अग्निश्वर, भुवन शोम, हाटे बजारे, स्थावर, लक्ष्मी का आगमन सहित 56 उपन्यास तथा लघुकथा के दो संगह तथा कविता आदि विविध विषयों पर अन्यान्य कृतियां।


लेखक विनीत उत्पल ने लिखा है, बंगाल के बहुचचित लेखकों में बनफूल यानि बलाईचांद मुखोपाध्याय शामिल हैं। मंडी हाउस स्थित वाणी प्रकाशन में किताबें टटोलते हुए उस दिन उनका 33वां उपन्यास 'दो मुसाफिर' पर नजर टिक गई। इस उपन्यास के घटनाक्रम में एक अलग स्थिति और माहौल घटित होता है। इस उपन्यास में अनोखापन तथा रोचकता भी है। बरसात की रात में नदी के घाट पर दो मुसाफिरों की मुलाकात होती हैं। उनमें से एक नौकरी की सिफारिश के लिए निकला हुआ युवक है, तो दूसरा रहस्यमय संन्यासी है। पानी से बचने तथा रात बिताने में बातों बात में उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों के सीन उभरते हैं। उपन्यास के जरिए बेहतरीन संदेश देने का काम किया गया है। उपन्यास से एक बात उभरती है कि इस दुनिया में सभी मुसाफिर हैं। बिना एक दूसरे की मदद से मंजिल तक पहुंचना आसान नहीं होता है। बनफूल ने मानवता की बातें भी सामने रखी हैं। 'दो मुसाफिर' को पढ़ते वक्त भागलपुर की यादें ताजा हो जाती हैं। इसी शहर तथा इसके आसपास के इलाकों में बनफूल अपने जीवन का बेहतरीन समय बिताया था। भागलपुर रेलवे स्टेशन के घंटाघर की ऒर जाने वाली सड़क पटल बाबू रोड कहलाती है। आंदोलन के दौरान पटल बाबू ने फिरंगियों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी थी। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू के काफी नजदीकी थे। राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा में उनके पटल बाबू (शायद 'सरदार पटेल' नहीं !) के बारे में काफी कुछ लिखा है।

इन्हीं पटल बाबू के मकान में कभी बनफूल का क्लिनिक हुआ करता था। आज भी यह मकान अपने अतीत को याद करते हुए सीना ताने खड़ा है। सफेद रंग के पुते इस मकान में फिलहाल सिंडिकेट बैंक चल रहा है जो रेलवे स्टेशन से घंटाघर जाते हुए अजंता सिनेमा हाल से थोड़ा पहले उसके सामने है। मुंदीचक मोहल्ले से शाह मार्केट जाने के रास्ते जहां पटल बाबू रोड मिलता है उसी कोने में यह मकान है। पटल बाबू के जीवन पर कभी कुछ लिखने की तमन्ना पालने वाला इन पंक्तियों के लेखक को जानकारी इकट्ठी करने के दौरान 'बनफूल' के बारे में जानकारी मिली थी। वहां रहने वाले पटल बाबू के संबंधी लेखक को उस कमरे में भी लग गए थे जहां बनफूल मरीजों को देखा करते थे। मकान के दो हिस्सों में बने बरामदे पर बैठ कर वे कहानी और उपन्यास की रचनाएं किया करते थे।

उपन्यास 'दो मुसाफिर' के पिछले पन्ने पर बनफूल की जीवनी को लेकर जानकारी दी गई है। तारीख 19 जुलाई 1899 को बिहार के कटिहार जिले के मनिहारी में जन्म। कोलकाता मेडिकल कालेज से डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद 'बनफूल' सरकारी आदेश पर आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए पटना गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे पटना मेडिकल कालेज एंड हॉस्पिटल और उसके बाद अजीमगंज अस्पताल में कुछ दिनों तक काम किया। बचपन से ही उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। उनका मन जंगलों में इतना लगता था कि उन्होंने अपना नाम 'बनफूल' ही रखा लिया। बाद में वे कहानी तथा उपन्यास भी लिखने लगे। मनोनुकूल परिस्थिति न मिलने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़कर मनिहारी गांव के पास ही 'दि सेरोक्लिनिक' की स्थापना की। 1968 में उनहत्तर साल की अवस्था में मनिहारी और भागलपुर को हमेशा के लिए छोड़कर कोलकाता में बस गए। वहीं 1979 में उनका निधन हो गया। हालाँकि इस जीवनी में एकपक्षीय उद्भेदन है।

मैं (सदानंद पॉल) बांग्ला उपन्यासकार बनफूल जी के गाँव से हूँ, इसलिए उनके जीवन और रचना-संसार ससाक्षय प्रस्तुत कर रहा हूँ, यथा- हिंदी फ़िल्म 'बनफूल' 1971 में आई थी, इस फिल्म में एक गीत है- 'मैं जहाँ चला जाऊं, बहार चली आए; महक जाए, राहों की धूल, मैं बनफूल....!' यह फ़िल्म जब रिलीज हुई थी, तब बांग्ला भाषा के मशहूर साहित्यकार, किन्तु मूलत: उपन्यासकार व कथाकार डॉ. बलाइचाँद मुखोपाध्याय 'बनफूल' जीवित थे, किन्तु इस फ़िल्म से 'बनफूल' जी का कोई सरोकार नहीं था । हाँ, नाम मिलना सिर्फ सांयोगिक परिघटना रही ! वैसे बनफूल जी के उपन्यासों और कहानियों पर आधारित कुल फिल्मों की संख्या 8 है, जो बांग्ला और हिंदी भाषा में है । उन 8 फिल्मों के नाम हैं- अग्निस्वर, भुवन शोम, एकटू रात, एलोर पिपासा, हाटे बाज़ारे, अर्जुन पंडित, तिलोत्तमा और पाका देखा। बनफूल जी ने 60 से अधिक उपन्यास (किन्तु विकिपीडिया या अन्यान्य सूची में 58 या 59 ही उपलब्ध है), 19 कहानीसंग्रहों में संकलित 600 से अधिक कहानियाँ और लघुकथाएँ, 14 नाटक, अनेक एकांकी, हजारों कविताएँ, अनगिनत लेख, आत्मकथा सहित बांग्ला साहित्य की विविध विधाओं में रचनाएँ प्रणयन किये, जो उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित हुई । उनके जीवित रहते ही उनकी रचनाओं का अनुवाद हिंदी, अंग्रेजी और कई भाषाओं में भी हुई। 'भास्कर न्यूज' ने बनफूल के बारे में लिखा है कि वे बांग्ला साहित्य जगत में स्थापित नाम थे । उन्होंने 1935 से आधिकारिक रूप से अपनी लेखन शुरुआत की थी । सन 1936 में जब उनकी पहली रचना 'बैतरणी तीरे' प्रकाशित हुई, तब से ही उन्हें प्रतिष्ठा मिलने लगी । इसके बाद उन्होंने सैकड़ों कहानियाँ लिखी, जिनमें किछु खोन, जाना, नवदिगंत, उर्मिला, रंगना और उनकी अंतिम कहानी 'हरिश्चंद्र' (1979) काफी चर्चित रही थी।


मनिहारी भूमि के रत्न 'बनफूल'

गंगा, कोशी और महानंदा के त्रिवेणी संगम पर बस मनिहारी की धरती हर दौर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाई है। बिहार के कटिहार जिले के मनिहारी (तब पूर्णिया जिला) में तब 80 फीसदी बंगाली परिवार रहते थे । मनिहारी कोठी, मनिहारी हाट, घाट रोड, अस्पताल परिसर (पीएचसी), डाक बंगला हाता, टालीपाड़ा इत्यादि बंगाली संस्कृति में रचे-बसे टोले-मुहल्ले हैं ! जहाँ जमींदार, रेलवे अफसर, शिक्षक, तो रेलवेकर्मी भी रहते आये हैं, तो पन्नालाल बाबू, सुरेंद्र नारायण बाबू, कालो बाबू, टूलो बाबू जैसे जमींदार वर्ग भी । हालाँकि ऐसे वर्ग से उनके अधिकांश वंशज सहित बंगाली परिवार कोलकाता, मुर्शिदाबाद, मालदा इत्यादि हेतु पलायन कर गए हैं, पर कुछ के वंशज अब भी यहाँ बसर कर रहे हैं ! मनिहारी कोठी क्षेत्र में पन्ना लाल सुरेंद्र नारायण कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है, तो इसी नाम से कन्या मध्य विद्यालय भी है, हालाँकि कन्या विद्यालय की स्थापना पहले हुई थी । वहीं टालीपाड़ा के पूर्वी छोड़ से पश्चिमी छोड़ में गंगा के छाड़न क्षेत्र तक एक ही प्लॉट है, बीच में सिर्फ एक रास्ता है । यह रास्ता बलदेव प्रसाद शुकदेव प्रसाद उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तक जाती है । पश्चिमी छोड़ यानी गंगा के छाड़न क्षेत्र की ओर अभी भी चबूतरा लिए घर है, यद्यपि यह मूल घर का अंश है, जहाँ जमींदार पिता डॉक्टर सत्तो बाबू (सत्यचरण मुखर्जी) के यहाँ माँ मृणालिनी के गर्भ से बालक फूलो बाबू (बनफूल) का जन्म 19 जुलाई 1899 को हुआ। वे 6 भाइयों और 2 बहनों में सबसे बड़े थे ! विकिपीडिया के अनुसार उनके पूर्वज प. बंगाल के हुगली जिला के सेहखला गाँव से मनिहारी आये थे और यहीं बस गए, हालाँकि तब बिहार भी 'बंगाल' में ही था।


मनिहारी में प्रारंभिक शिक्षा

मनिहारी में ही 'बनफूल' की प्रारंभिक शिक्षा हुई। विद्यालयीय नाम बलाइ चाँद मुखोपाध्याय (बलायचंद मुखर्जी भी उच्चरित है), किन्तु पुकार नाम 'फूलो' बाबू । वे जंगल-झाड़ और पक्षियों-तितलियों में भटकते फिरते, तभी तो उनके पारिवारिक नौकर उसे 'जंगली' बाबू भी कहते ! उनकी खुद अपनी समृद्ध फुलवारी थी, शायद 'बनफूल' उर्फ 'बोनोफूल' उपनाम रखा जाने की मंशा इसी कारणश: रहा हो।


साहिबगंज में हाईस्कूली शिक्षा

प्रारंभिक शिक्षा के बाद जब बनफूल का नामांकन मनिहारी से लगभग 8 किलोमीटर दक्षिण गंगा पार (स्टीमर, नाव आदि से गंगा नदी पार) साहिबगंज (अब झारखंड) के रेलवे हाईस्कूल में हुई, तब वे हाईस्कूल में 'बिकाश' (विकास) नामक बांग्ला हस्तलिखित पत्रिका निकालते थे । स्कूल जीवन में ही एक कविता बांग्ला की स्तरीय पत्रिका 'मालंच' में छपी थी, जिनसे हाईस्कूल के हेडमास्टर खपा हो गए थे कि तुम पढ़ने आये हो या कविता-कहानी लिखने ! तब साहिबगंज रेलवे हाई स्कूल के शिक्षक बोटू दा ने उन्हें छद्मनाम 'बनफूल' (बांग्ला में 'बोनोफूल') उपनाम देकर लेखनकार्य के लिए प्रोत्साहित किए। इसतरह से 'बनफूल' उपनाम से पहली रचना 1918 में 'प्रवासी' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और इसी साल साहिबगंज के रेलवे हाईस्कूल से प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण हुए, फिर हजारीबाग के संत कोलम्बस कॉलेज से आईएससी उत्तीर्ण हुए।


मेडिकल की पढ़ाई कलकत्ता और पटना में

विकिपीडिया और अन्यान्य अनुसार, आईएससी के बाद 'बनफूल' कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में मेडिकल पढ़ाई हेतु नामांकित हुए, फिर सरकारी आदेश के बाद अंतिम वर्ष की पढ़ाई 'पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल' (PMCH) में पूर्ण की, हालाँकि तब PMCH का नाम 'प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज' था । ये दोनों मेडिकल कॉलेज तब कलकत्ता यूनिवर्सिटी में थे।


सरकारी नौकरी से निजी क्लिनिक तक

बनफूल जी ने मेडिकल क्षेत्र में पहली सरकारी नौकरी Azimganj Hospital, मुर्शिदाबाद में किये, फिर भागलपुर में बतौर 'पैथोलॉजिस्ट' कार्य किये । अब सवाल यह है, उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई पैथोलॉजी के लिए की थी या LMP (अब MBBS नाम) के लिए। खैर, मनोनुकूल परिस्थिति न मिलने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़कर मनिहारी गांव के पास ही 'दि सेरोक्लिनिक' की स्थापना की। अपने जन्मभूमि गाँव को छोड़कर निकट के सबसे बेस्ट शहर भागलपुर में 40 वर्षों तक व्यक्तिगत पैथोलॉजी लैब चलाये । यह लैब भागलपुर के आदमपुर मुहल्ले में पटल बाबू के मकान में था । उस लैब वाली जगह पर अभी शायद सिंडिकेट बैंक है।

कोलकाता में बस जाना

वर्ष 1968 में सॉल्टलेक सिटी (कोलकाता) बस जाते हैं, क्योंकि बंग साहित्य सम्मेलन का उन्हें प. बंगाल हेतु प्रांतीय अध्यक्ष बना दिया जाता है । यहीं उनके मित्र और पड़ौसी श्री बी. आर. गुप्ता भी रहते थे, जो उस समय प. बंगाल के राज्यपाल के मुख्य सचिव थे । श्री गुप्ता के पहल पर राज्यपाल ने उनके नाम 'पद्मभूषण' हेतु अनुशंसा किये थे, हालाँकि वर्ष 1975 के 'पद्मभूषण' हेतु उनका पता 'बिहार' ही है, जो कि क्रमांक- 19 (भारतरत्न श्री वी वी गिरि के क्रमांक को छोड़कर) पर नाम Shri Balai Chand Mukhopadhyaya लिए है, किन्तु इनके साथ न तो 'बनफूल' (Banaphool) उपनाम अंकित है और नाम के prefix में 'Dr.' भी नहीं है। ध्यातव्य है, PMCH के पद्म अवार्डी छात्रों की सूची में एक नाम डॉ. बी. मुखोपाध्याय भी दर्ज है, जो कि 'बनफूल' ही हैं, कोई और नहीं ! सॉल्टलेक सिटी में ही उनका निधन 9 फरवरी 1979 को 79 वर्ष 6 माह 21 दिन की आयु में हो गया। वर्ष 1999 उनके जन्मशताब्दी वर्ष थे, तब देश के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी थे और रेल मंत्री श्री नीतीश कुमार थे, किन्तु इसी वर्ष नीतीश जी द्वारा रेल मंत्री पद से त्यागपत्र देने पर सुश्री ममता बनर्जी रेल मंत्री बनी । तब माननीया बनर्जी ने 22 नवंबर 1999 को उनकी कृति 'हाटे बाज़ारे' के नाम पर उनकी जन्मभूमि कटिहार (मनिहारी) से सियालदह (कोलकाता) तक के लिए एक एक्सप्रेस ट्रेन का नामकरण 'हाटे बाज़ारे' की घोषणा की, अब यह ट्रेन उसी नाम से सहरसा- सियालदह वाया कटिहार होकर चलती है। वर्ष 1999 में ही भारत सरकार ने उनकी तस्वीर और नाम-उपनाम के साथ 3 रुपये का डाकटिकट भी जारी किये । ध्यातव्य है, 'हाटे बाज़ारे' पहलेपहल लम्बी कहानी के रूप में प्रकाशित हुई थी, फिर उपन्यास के रूप में !


साहिबगंज कनेक्शन

झारखंड के 'साहिबगंज' जिले (पहले बिहार) के रेलवे हाईस्कूल से एन्ट्रेंस पासआउट बांग्ला उपन्यासकार व कथाकार बलायचंद मुखोपाध्याय 'बनफूल' के बारे में कुछ नई जानकारी इकट्ठी हुई है, जिनमें सत्य पक्ष लिए संशोधन सहित पाठकों व मित्रो के अवलोकनार्थ उद्धृत कर रहा हूँ । जन्मभूमि मनिहारी के बाद 'साहिबगंज' की भी सुरभि बिखेरनेवाले व पद्मभूषण से सम्मानित प्रख्यात बंगला साहित्यकार बनफूल उर्फ डॉक्टर बलाइ चन्द्र मुखर्जी या बलायचंद मुखोपाध्याय या बलाइ चाँद मुखोपाध्याय की स्मृतियाँ आज साहिबगंज में गिने-चुने लोगों की स्मृति में रची-बसी है। साहिबगंज में बनफूल के जीवन से जुड़ी यादें अब यहाँ के लोगों के बीच धूमिल पड़ती जा रही है, जिसे बचाने का प्रयास भी नहीं हो रहा है, जबकि भारत की आजादी से पहले साहिबगंज के पास ही सकरीगली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के अचानक ठहरने की एक घटना से जुड़ी 'बनफूल' के रिपोर्ताज़ पर उनके अनुज व टॉलीवुड के प्रसिद्ध फिल्म निर्माता अरविंद मुखर्जी द्वारा बनाई फिल्म 'किछु खन' (कुछ क्षण) को राष्ट्रपति द्वारा 'स्वर्ण कमल' व राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। साहिबगंज कॉलेज द्वारा बनफूल के सम्मान में इस कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य डा. शिवबालक राय के सम्पादकत्व में प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका 'बनफूल' भी अब बंद हो चुकी है। ....तो साहिबगंज के रेलवे हाईस्कूल, जहाँ से बनफूल ने प्रवेशिका तक शिक्षा पाई और साहिबगंज कॉलेज रोड का 'नीरा लॉज' (कालांतर में होटल), जहाँ उनका आवास था, अब यह किसी की स्मृति में नहीं है, न ही इन सुखद स्मृतियों को सँजोने का कार्य ही हो रहे हैं, जबकि आज भी साहिबगंज पर केंन्द्रित उनकी कृतियों में शिकारी, निर्मोक, मनिहारी सहित रामू ठाकुर, कुमारसंभव, खोआघाट, जेठेर माय जैसी कथाएं ने देश-विदेश में बनफूल, मनिहारी और साहिबगंज की पहचान को प्रतिबद्ध की हुई है। ध्यातव्य है, बांग्ला साहित्य में कवीन्द्र रवींन्द्र, शरतचंद्र व बंकिमचंद्र के बाद आम -आदमी की पीड़ा को लेखनबद्ध करने में बनफूल का महत्वपूर्ण अवदान रहा है, तो इनकी कई रचनाओं में साहिबगंज की सामाजिक, मार्मिकता अथवा राजनीतिक क्षणों का चित्रण प्रस्तुत किया है। इस संबंध में कुछ वर्ष पहले तक भागलपुर के बंगाली टोला में बनफूल जी के रिश्तेदार तरूण कुमार चटर्जी जी उनके बारे में कई संस्मरण सँजो रखे रहे ! वे साहिबगंज तो पढ़ने आए थे । रेलवे हाईस्कूल में पढ़ने के दौरान शिक्षक बोटू बाबू ने इनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचाना था और लिखने के लिए प्रेरित किया था। फलस्वरूप छात्र जीवन में ही स्कूल से निकलने वाली हस्तलिखित पत्रिका के वे संपादक बन चुके थे। आईएससी की पढ़ाई हजारीबाग से पूर्ण की थी । उनका साहित्यिक अनुराग वहाँ से शुरू होकर भागलपुर में पैथोलोजिस्ट बन आदमपुर चौक पर क्लिनिक संचालन के साथ -साथ साहित्य में फर्राटा भर लिये और पूर्णरूपेण साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ गए, लेकिन डॉक्टरी में बनफूल का मन न लगा और भागलपुर छोड़ बांग्ला साहित्य की सेवार्थ कोलकाता पहुंच गए, बावजूद उनके साहिबगंज से जुड़ाव अंतत: रहा और साहिबगंज कालेज के पूर्व प्राचार्य शिवबालक राय के कार्यावधि में वे 'बंग साहित्य सम्मेलन' की अध्यक्षता करने जरूर आ जाते थे । बनफूल के साहिबगंज से गहरे लगाव से संबंधित एक घटना के संबंध में शहर के वयोवृद्ध अधिवक्ता ठाकुर राजेन्द्र सिंह चौहान कहते हैं- "बनफूल जब भी साहिबगंज आते थे, अपने स्कूल जीवन के निवास स्थल 'नीरा लॉज' में ही ठहरते थे। साहित्यकार के साथ वे बड़े प्रसिद्ध चिकित्सक तो थे ही, तभी तो दूरदराज के लोग उनके पास इलाज कराने भागलपुर अवश्य पहुंचते थे। साहिबगंज के प्रति गहरा लगाव रखनेवाले व देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान रखनेवाले लेखक व चिकित्सक बनफूल अब साहिबगंज में गिने-चुने लोगों और किताबों तक सिमट कर रह गए हैं!"


जन्मभूमि मनिहारी में 'बनफूल' के प्रति सरकारी उपेक्षा

भारत सरकार द्वारा 'पद्मभूषण' मिलने के बावजूद बिहार सरकार, प. बंगाल सरकार, झारखंड सरकार द्वारा उचित सम्मान नहीं मिलने से उनके परिजन आहत हैं। उनकी जन्मस्थली व मनिहारीवासियों का कहना है कि 'बनफूल' के आवास डाकबंगला समीप (जहाँ अभी उनके भतीजे श्री उज्ज्वल मुखर्जी उर्फ़ मुकुल दा रह रहे हैं) तथा मनिहारी पीएचसी समीप स्थल को 'बनफूल जन्मस्थली' के रूप में बिहार सरकार विकसित करें, तो स्मृति सँजोने के साथ -साथ यह पर्यटन क्षेत्र के रूप में भी विकसित होगा ! अगर पद्म अवार्ड के प्रोटोकॉल के मानिंद भी सोची जाय, तो पद्मश्री प्राप्त करनेवाले फणीश्वरनाथ रेणु की बिहार सरकार पूजा करते हैं, किन्तु पद्मभूषण प्राप्त करनेवाले बनफूल की इतनी उपेक्षा क्यों ? मनिहारीवासी उनकी धरोहर को स्मारक व मेमोरियल के रूप में देखना चाहते हैं ! ध्यातव्य है, कुछ दशक पूर्व मनिहारी के नवाबगंज के साहित्यकार, रंगकर्मी और शिक्षक स्व. डॉ. एस. एन. पाठक ने 'बनफूल' के एक अन्य हिंदी नाम 'वन प्रसून' शब्द को लेकर 'वन प्रसून कला परिषद' की स्थापना किये थे, जिनमें प्रख्यात चित्रकार और शिक्षक श्री वासुदेव पासवान की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही थी !

मनिहारी से 'बनफूल जन्मस्थली पुरस्कार' की शुरुआत हो तथा स्थानीय स्थापित साहित्यकारों को सादरामन्त्रित कर प्रतिवर्ष उन्हें पुरस्कृत भी की जाय । धीरे -धीरे पुरस्कार का विस्तार स्थानीय स्थापित साहित्यकारों के इतर भी हो ! पुरस्कार राशि स्थानीय जनप्रतिनिधियों, पदाधिकारियों, अधिवक्ताओं, शिक्षकों, शुभेच्छुओं से सादर ग्रहण की जाय ! जो कुछ बने, मैं भी इस हेतुक सदैव तत्पर रहूँगा ! पर इस हेतु चयन समिति में साहित्य या साहित्येतर कथित मठाधीशों को इनमें कतई जगह नहीं मिले और ना ही पॉलिटिक्स की बातें इसके विन्यस्त: हो !

'बनफूल' की रचनाओं में यथार्थबोध

रवीन्द्र पुरस्कार विजेता और पद्म भूषण 'बनफूल' की औपन्यासिक कृति 'दो मुसाफिर' पर मधेपुरा निवासी पत्रकार व समीक्षक श्री विनीत उत्पल ने क्या सुंदर समीक्षा किए हैं, यथा-

"बंगाल के बहुचचित लेखकों में बनफूल यानी बलाइ चाँद मुखोपाध्याय शामिल हैं। मंडी हाउस स्थित वाणी पकाशन की दुकान में किताबें टटोलते हुए उस दिन उनका 33वां उपन्यास 'दो मुसाफिर' पर नजर टिक गई। इस उपन्यास के घटनाकम में एक अलग स्थिति और माहौल घटित होता है। इस उपन्यास में अनोखापन तथा रोचकता भी है। बरसात की रात में नदी के घाट पर दो मुसाफिरों की मुलाकात होती हैं। उनमें से एक नौकरी की तलाश में निकला हुआ युवक है, तो दूसरा रहस्यमय सन्यासी है। पानी से बचने तथा रात बिताने में बातों बात में उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों के सीन उभरते हैं। उपन्यास के जरिए बेहतरीन संदेश देने का काम किया गया है। उपन्यास से एक बात उभरती है कि इस दुनिया में सभी मुसाफिर हैं। बिना एक दूसरे की मदद से मंजिल तक पहुंचना आसान नहीं होता है। बनफूल ने मानवता की बातें भी सामने रखी हैं। हिंदी अनूदित बांग्ला उपन्यास 'दो मुसाफिर' को पढ़ते वक्त भागलपुर की यादें ताजा हो जाती हैं। इसी शहर तथा इसके आसपास के इलाकों में 'बनफूल' अपने जीवन का बेहतरीन समय बिताया था। भागलपुर रेलवे स्टेशन के घंटाघर की ऒर जाने वाली सड़क पटल बाबू रोड कहलाती है। आंदोलन के दौरान पटल बाबू ने फिरंगियों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी थी। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू के काफी नजदीकी थे। राजेंद बाबू ने अपनी आत्मकथा में उनके पटल बाबू के बारे में काफी कुछ लिखा है । इन्हीं पटल बाबू के मकान में कभी बनफूल का 'क्लिनिक' हुआ करता था। आज भी यह मकान अपने अतीत को याद करते हुए सीना ताने खड़ा है। सफेद रंग के पुते इस मकान में फिलहाल सिंडिकेट बैंक चल रहा है, जो रेलवे स्टेशन से घंटाघर जाते हुए अजंता सिनेमा हॉल से थोड़ा पहले उसके सामने है। मुंदीचक मोहल्ले से शाह माकेट जाने के रास्ते जहां पटल बाबू रोड मिलता है, उसी कोने में यह मकान है। पटल बाबू के जीवन पर कभी कुछ लिखने की तमन्ना पालने वाला इन पंक्तियों के लेखक को जानकारी इकट्ठे करने के दौरान बनफूल के बारे में जानकारी मिली थी। वहां रहने वाले पटल बाबू के संबंधी लेखक को उस कमरे में भी लग गए थे, जहां बनफूल मरीजों को देखा करते थे। मकान के दो हिस्सों में बने बरामदे पर बैठ कर वे कहानी और उपन्यास की रचनाएं किया करते थे। उपन्यास 'दो मुसाफिर' के पिछले पन्ने पर बनफूल की जीवनी को लेकर जानकारी दी गई है।"

बांग्ला लेखक परशुराम का मानना था कि उनकी पुस्तक 'डाना' को अंग्रेजी में अनूदित कर नोबेल प्राइज के लिए भेजी जाती, तो अवश्य ही बनफूल को नोबेल पुरस्कार मिल जाते ! उन दिनों पुस्तकों पर ही नोबेल पुरस्कार मिला करते थे । क्या पता उनकी कृतियों को नोबेल प्राइज के लिए भेजी गई हो ? 'बनफूल' को विश्व भारती शांति निकेतन ने 'रवींद्र पुरस्कार' भी प्रदान किए । उनके उपन्यासों पर आधारित फिल्म, क्रमश: 'भुवन शोम' और 'हाटे बाज़ारे' को नेशनल अवार्ड और राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल भी मिला है, वहीं उनकी कहानी पर बनी फिल्म 'अर्जुन पंडित' को फ़िल्म फेयर अवार्ड भी प्राप्त हो चुका है । उनके देहांत के कई वर्षो बाद भी नई दिल्ली स्थित हिंदी के पहले पॉकेट बुक्स 'हिंद पॉकेट बुक' और शाहदरा, दिल्ली के 'सुरेंद्र कुमार एण्ड संस' से प्रकाशित उनकी पुस्तकों की मांग बनी हुई है।


बलाइचाँद मुखोपाध्याय 'बनफूल' प्रणीत रचना संसार :-

●उपन्यास :- तृणखण्ड (1935), वैतरणी तीरे (1936), किछुखण (1937), द्वैरथ (1937), मृगया (1940), निर्मोक (1940), रात्रि (1941), से ओ आमि (1943), जंगम (चार खण्डों में, 1943-45), सप्तर्षि (1945), अग्नि (1946), स्वप्नसम्भव (1946), न... तत्पुरुष (1946), डाना (तीन खण्डों में, 1948, 1950, 1955), मानदण्ड (1948), भीमपलश्री (1949), नवदिगन्त (1949), कष्टिपाथर (1951), स्थावर (1951), लक्ष्मीर आगमन (1954), पितामह (1954), विषमज्वर (1954), पंचपर्व (1954), निरंजना (1955), उज्जवला (1957), भुवन शोम (1957), महारानी (1958), जलतरंग (1959), अग्नीश्वर (1959), उदय अस्त (दो खण्डों में, 1959, 1974), दुई पथिक (1960), हाटे बाजारे (1961), कन्यासु (1962), सीमारेखा (1962), पीताम्बरेर पुनर्जन्म (डिकेन्स कृत खिश्टन कैरोन पर आधारित, 1963), त्रिवर्ण (1963), वर्णचोरा (1964), पक्षी मिथुन (1964), तीर्थेर काक (1965), गन्धराज (1966), मानसपुर (1966), प्रच्छन्न महिमा (1967), गोपालदेवेर स्वप्न (1968), अधिक लाल (1969), असंलग्ना (1969), रंगतुरंग (1970), रौरव (1970), रुपकथा एवं तारपर (1970), तुमि (1971), एराओ आछे (1972), कृष्णपक्ष (1972), सन्धिपूजा (1972), नवीन दत्त (1974), आशावरी (1974), प्रथम गरल (1974), सात समुद्र तेरो नदी (1976), अलंकारपुरी (1978), ली (1978), हरिश्चन्द्र (1979).

●कविता-संग्रह :- बनफूलेर कविता (1936), चतुर्दशी (1940), अंगारपर्णी (1940), आहरणीय (1943), करकमलेषु (1946), बनफूलेर व्यंग्य कविता (1958), नूतन बाँके (1959), सुरसप्तक (1970).

●नाटक :- मंत्रमुग्ध (1938), रुपान्तर (1938), श्रीमधुसूदन (1939), विद्यासागर (1941), मध्यवित्त (1943), दशभान (1944), कंचि (1945), सिनेमार गल्प (1946), बन्धनमोचन (1948), दशभान ओ आरो कयेकटि (1952), शृणवस्तु (1963), आसन्न (1973), त्रिनयन (तीन नाटक, 1976).

●कहानी संग्रह :- बनफूलेर गल्प (1936), बनफूलेर आरो गल्प (1938), बाहुल्य (1943), विन्दु विसर्ग (1944), अदृश्यलोक (1946), आरो कयेकटि (1947), तन्वी (1952), नव मंजरी (1954), उर्मिमाला (1955), रंगना (1956), अनुगामिनी (1958), करबी (1958), सप्तमी (1960), दूरबीन (1961), मनिहारी (1963), छिटमहल (1965), एक झाँक खंजन (1967), अद्वितीया (1975), बहुवर्ण (1976), बनफूलेर नूतन गल्प (1975), माया कानन (1978). इत्यादि।

●कहानी संचयनिका :- बनफूलेर गल्प संग्रह (दो खण्डों में, 1955 और 1957), तिन काहिनी (1961), बनफूलेर गल्प संग्रह (सौ-सौ कहानियों के तीन खण्ड, 1961, 1965 और 1970), चतुरंग (1974), बनफूल वीथिका (1974), दिवस यामिनी (1976), बनफूलेर श्रेष्ठ गल्प (1976), राजा (1977), बनफूलेर हासि गल्प (1978), बनफूलेर शेष लेखा (1979).

●लेख :- उत्तर (1953), शिक्षार भित्ति (1955), मनन (1962), द्विजेन्द्र दर्पण (1967), हरिश्चन्द्र (1979).

●संस्मरण :- भूयो दर्शन (1942), रवीन्द्र स्मृति (1968), डायरी- मर्जिमहल (1974).

●आत्मकथा :- पश्चातपट (1978).

●रम्यरचना :- चूड़ामणि रसार्णव (1976).

●व्याख्यान :- भाषण (1978).

●बालसाहित्य :- छोटोदेर श्रेष्ठ गल्प (1958), छोटोदेर भालो भालो गल्प (1961), बनफूलेर किशोर समग्र (1978).

●अन्य :- बनफूल रचना संग्रह (15 खण्डों में), बनफूलेर छोटोगल्प समग्र (दो खण्डों में, 2003), बनफूल रचनावली (24 खण्डों में, सम्पादक- सरोजमोहन मित्र, शचीन्द्रनाथ बंद्योपाध्याय एवं निरंजन चक्रवर्ती).

●बनफूल के व्यक्तित्व व कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तकें :- बनफूलेर कथा साहित्य (सं.- धीमान दासगुप्त, 1983), बनफूलेर फूलवन (ले.- सुकुमार सेन, 1983), कथाकोविद बनफूल (ले.- निशीथ मुखोपाध्याय, 1989), बनफूल: जीवन, मन ओ साहित्य (ले.- उर्मि नन्दी, 1997), बनफूलेर जीवन ओ साहित्य (ले.- निशीथ मुखोपाध्याय, 1998), बनफूल: शतवर्षेर आलोय (सं.- पवित्र सरकार, 1999), बनफूल (ले.- प्रशान्त दासगुप्ता, 2000), बनफूल (ले.- विप्लव चक्रवर्ती, 2005). ●●●

______________________________________________________ संदर्भ :-

1. संवदिया पत्रिका / बनफूल विशेषांक / जुलाई-सितम्बर 2013 2. कोसी शोध साहित्य संदर्भ कोश / सं. डॉ. देवेन्द्र कु. देवेश 3. बनफूल की कहानियाँ / अनुवादक- श्री जयदीप शेखर 4. श्री विनीत उत्पल 5. हिंदी न्यूज / 7 जनवरी 2013 6. भास्कर न्यूज / 9 फरवरी 2019 7. विकिपीडिया और अन्य ब्लॉग से 8. जन्मभूमि क्षेत्र के होने के नाते स्वयं द्वारा अनेक तथ्यों की खोज।


रचनाकार परिचय :-


डॉ. सदानंद पॉल


तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), मानद डॉक्टरेट. 'वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित संसार के सबसे बड़े हस्तनिर्मित सुडोकु 'सदानंदकु' और गणित पहेली 'अटकू', अभाज्य संख्याओं को ज्ञात करने के सूत्र, भारतीय गोरैया पक्षी पर विशिष्ट शोध लिए 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में qualify. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. बिहार सरकार के राजकीय शिक्षक पुरस्कार 2019 प्राप्तकर्त्ता. RTI सहित अनेक जनसरोकार कार्यों में भागीदारी.



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