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हाशिये पर पड़े भारत के कभी ना भरने वाले ज़ख्मों की अंतहीन कथा- एक देश बारह दुनिया

Updated: Aug 5, 2022

एक ऐसे दौर में जहां पत्रकारिता की हर लाइन बाज़ार के हिसाब से लिखी, पढ़ी, और समझी जा रही हो, शिरीष खरे उस बाज़ारीय पत्रकारिता का ऐसा कोई नुमाइंदा नहीं है जो काली पैंट के ऊपर सफेद शर्ट में रेड टाई लगाकर किसी तरह की लव, सेक्स और धोखा टाइप की स्टोरी करने निकले हों या फिर नल से आ रहे गंदे पानी को सेकेंड में पीने लायक बनाने की मशीन या फिर पौरुष शक्ति को बढ़ावा देने वाली तमाम अलौकिक और पारलौकिक शक्तियों के खिलाफ कोई नुस्खा बेचने निकले हों। एक देश बारह दुनिया पत्रकारिता के उस काले हिस्से की कहानी है जहां पर दिन की रोशनी भी बमुश्किल अपना सफर तय करती है। जिन जगहों की हकीकत भी कभी निकल कर सफेद सफों की कालिमा नहीं बन पाती शिरीष ने उन पगडंडियों को अपना हमसफ़र बनाया है। जिन रास्तों की गूगल मैप से लेकर जिले और राज्यों के नक्शों में भी कभी जगह नहीं बन पाई एक देश बारह दुनिया के माध्यम से शिरीष ने नाप लिया है। भूख प्यास से लाचार पीठ पर चिपके खाली पेटों की कहानी का वो हिस्सा जिसे सुनकर आपका मन थाली पर पड़े कौंर से विरक्ति पैदा कर दे उसकी कहानी लेकर वो हम सबके सामने हैं। एक देश बारह दुनिया डेढ जीबी प्रतिदिन के फ्री इंटरनेट की जाल में फंसे भारत की कहानी नहीं है, बल्कि भारत के उस हिस्से की कहानी है जहां दो वक्त की रोटी की ब्लैक एंड व्हाइट पिक भी मोबाइल पर डाउनलोड नहीं होती।

किताब के हर सफे को पलटते हुए अहसास होता कि दुनिया वो नहीं जो 24X7 के चमकते स्क्रीन पर फक जगमगाते चेहरे की मुस्कान की पीछे की थकान को ख़त्म करने की जल्दी में जो दिखेगा वही बिकेगा या फिर हम वही दिखाएंगे जो वो देखेंगे तक सिमट कर रह जाती है। एक देश बारह दुनिया एक पत्रकार की नज़र से दुनिया का वो हिस्सा दिखाती है जहां भुखमरी है, लाचारी है, जहां जिस्म को आत्मा के साथ पालने की जद्दोजहद है, जहां आंखों की पलकों पर दम तोड़ती उम्मीद अपने हर सांस को बचाने की बैचेनी में आसमान को ताकते हुए खुली ही रह जाती है। जहां सब कुछ जानते हुए भी कुछ ना कर पाने की विवशता से लड़ता हुआ पत्रकार, आदमी और इंसानियत के बीच खुद को हारा हुआ महसूस करता है, अपने दोनों हाथों की पोरों के बीच छटपटाते भारत की हर पल टूटती और कमज़ोर पड़ती सांसों की गरमाहट को ठंडी पड़ते देखता है, पछताता है।

यह भारत के उस हर हिस्से की कहानी है जहां से कहानी की सिरा तो शुरू होता है लेकिन कभी कहानी के गोल्डन फ्रेम में नहीं आ पाता। बकौल शिरीष दर्द को झेलकर लिखना आसान काम नहीं है। हर जख़्म अपने पीछे एक कहानी छोड़ जाता है, शायद इसलिए ही एक देश बारह दुनिया को हाशिये पर पड़े भारत के कभी ना भरने वाले ज़ख्मों की अंतहीन कथा कहना ज्यादा सटीक होगा।

वह कल मर गया पढते हुए आपको मेलघाट की अप्रतिम, अविस्मरणीय, अलौकिक सुंदरता से पटी मोह लेने वाली प्रकृति और वहां के स्थानीय निवासियों के अद्भुत रीति रिवाजों के बीच भुखमरी और लाचारी का वो सैलाब नज़र आता है जिसका फासला आप कभी तय नहीं करना चाहेंगे। यहां आपको इस बात का अहसास होगा कि पानी की किल्लत से जूझते महाराष्ट्र कि किस्मत सिर्फ गर्मियों में ही ख़राब नहीं होती है उसकी बदकिस्मती में विदर्भ का ये अभागा हिस्सा भी है। जगमगाते हुए शहरों के ही किसी हिस्से से जुडे इस अभागे जमीनी हिस्से की बदकिस्मती इससे ज्यादा और क्या होगी कि किसी बूढ़ी अम्मां को अपनी जाती आंखों रोशनी से ज्यादा फिकर अपने बेटे के लौट आने की हो ताकि कम से कम कभी ना ख़त्म होने वाले अंधेरे से पहले वो एक बार धुंधले उजाले में अपने बेटे की सूरत निहार ले, उसे चूम ले। देश के इस हिस्से का डर आतंकवाद नहीं है, नक्सलवाद भी नहीं हैं और ना ही बेरोजगारी है। बल्कि देश के हिस्से सबसे बड़ा डर भूख है और उससे भी बड़ा डर उस भूख से उपजे दर्द का कोई इलाज ना मिल पाना है। शिरीष की जितनी चिंता ख़त्म होते जंगल और जीव हैं उससे कहीं ज्यादा चिंता उन्हें ख़त्म होते आदिवासियों की भी है। खत्म होते जंगल से ज्यादा उन्हें आदिवासी से मज़दूर बनते आदिवासियों की है। उफ्फ्फ ये अभागा विदर्भ।

मेलघाट से निकलकर कमाठीपुरा की तंग गलियों का सफ़र थोडा असहज जरूर करता है लेकिन उजले शहर की ये वो अंधेरी गलियां हैं जिसमें ना कितने बचपनों ने अपना दम तोड़ा है। इन गलियों में पलने वाले ये ​वो मासूम हैं जो अपने घरों से कब गायब हो गये, उन्हें खुद ही नहीं पता। ये वो लड़कियां थी जो कभी बडी नहीं हो पाई। ये वो लड़कियां हैं जिन्होंने कभी अपना बचपन नहीं देखा। गुड्डे गुड्डियों से खेलने की उम्र में लोग कब इनके जिस्म से खेलने लगे, उन्हें खुद नहीं पता। इनके सपने कभी इनके अपने नहीं हुए और इनके अपने, वो तो सपनों की ही बात है। बहरहाल शिरीष ने कमाठीपुरा की तंग गलियों को इतिहास की कई परतों के बीच से निकाला तो ही, इन बंद गलियों की काल- कोठरियों के पीछे की अनदेखी सच्चाई से रूबरू भी करवाया है। यह एक संवेदनशील पत्रकार की मौलिक चेतना ही हो सकती जिसने बाजार की एक गली के छोर में बिक रहे गर्म चाय, पकौडे और दूसरी गली के छोर में बासी जिस्मों की गरमाहट में पेट की आग बुझाने की जद्दोजहद को लिख सके।

शब्द बेहद कीमती होते हैं शब्दों के चयन में गंभीरता बरतनी चाहिए, यही पत्रकारिता पहला उसूल भी माना जाना चाहिए। पत्रकारिता के योद्धाओं को शिरीष ने अपनी विशिष्ट शैली में बताया है शब्दों को कब, कहां और कैसे खरचने चाहिए।

किताब के कई हिस्सों में पाठक और लेखक बीच असहजता और विरोधाभास हो सकता है। लेकिन कुछ हिस्सों को छोड दिया जाए तो शिरीष चाहते तो इस पूरी कहानी को सिर्फ एक कहानी की ही तरह पेश कर सकते थे लेकिन बडी चतुराई से उन्होंने इसे एक दस्तावेज के रूप में पेश किया है। दस्तावेज सहेजने के कई तरीके हैं। दीवारों पर लिखे गए या उकेरे चित्रों पर समय के साथ धूल पड़ जाती है लेकिन पुस्तक के रूप में उकेरे गए रंगहीन शब्द अनंतकाल तक अपनी स्मृति को बनाए रखते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में एक देश बारह दुनिया एक ऐसा ही दस्तावेज है जिसकी चमक चिरकाल तक बनी रहेगी।


Dr. Keshav Patel is a Assistant Professor at Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism and Communication (Bhopal, Madhya Pradesh)


किताब- एक देश बारह दुनिया

प्रकाशक-राजपाल

समीक्षक- केशव पटेल पत्रकार एवं असिस्टेंट प्रोफेसर (मीडिया )

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