भारतीय दंड संहिता में हत्या की सजा केवल हत्यारे को नहीं हत्या की साजिश में शामिल लोगों के लिए भी तय होती है।
आत्म'हत्या' में पारिवारिक और स्थानीय समाज की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए। किसी के लिए आत्म'हत्या' एकाएक उपजी अवस्था नहीं है, वह सतत प्रक्रिया से गुजरकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचती है।
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यह कितना शर्मनाक है कि हमारे आसपास ही कोई धीरे-धीरे मर रहा होता है और हम इतने यांत्रिक हो चुके होते हैं कि तनख्वाह, खरीदारी और कई मर्तबा सजावटी भागदौड़ में ही व्यस्त रहते हैं। आत्म-प्रदर्शन के अतिरेक में डूबकर सोशल मीडिया पर घंटों उलझे रहते हैं। अपनी सामाजिक परिधि का विस्तार तो करते हैं लेकिन परिवार तथा पड़ोसियों की सुधि लेना गैर ज़रूरी समझते हैं।
हमारे आस पास ऐसे बहुत लोग हैं जो धीरे-धीरे मर रहे हैं. अपने परिचितों के बीच से जब कोई आत्महत्या करता है तो वह शोक प्रकटीकरण का कारण बन जाता है, लेकिन शोक प्रकट करने वालों में से ही बहुत लोग
अपने पड़ोसियों से कोई संवाद नहीं रखते!
स्वस्थ होते हुए भी नियमित रक्तदान नहीं करते!
. किसी के लिए चार कदम चलना नहीं चाहते!
अनेक लोगों को अपने से कमतर समझ उनसे दुराव रखते हैं।
मानसिक, आर्थिक या सामाजिक शोषण को अपने रुतबे से जोड़ते हैं और उसे बदस्तूर जारी रखते हैं।
बच्चों की क्षमता का मूल्यांकन लिए बग़ैर उनसे अधिक नंबर लाने की अपेक्षा, इंजीनियरिंग, मेडिकल या प्रशासनिक सेवाओं में जल्दी से जल्दी चयन की कामना और उसके लिए अनावश्यक व्यक्तिगत या सामाजिक दवाब बनाते बढ़ाते।
सक्षम होते हुए भी अपने ही कहे जाने वाले किसी के कष्ट को देखकर या जानकर शाब्दिक सहानुभूति से काम चला लेते।
दरअस्ल, इस मनोवृत्ति से बाहर निकलकर ही बहुत लोगों को आत्महत्या से बचाया या बचा जा सकता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक़
देश में वर्ष 1967 के बाद पहली बार सबसे अधिक आत्महत्या दर दर्ज की गई है। बीते साल प्रति दस लाख की आबादी पर 120 लोगों ने खुदकुशी की। यह दर 2020 के मुकाबले 6.1 फीसदी ज्यादा है। इससे पहले सबसे ज्यादा आत्महत्या की दर वर्ष 2010 में रिकॉर्ड की गई थी। तब प्रति दस लाख लोगों पर 113 लोगों ने आत्महत्या की थी। यह खुलासा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जारी ताजा आंकड़ों से हुआ है।
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