कैक्टस का फूल, मुस्कुराते माली और चुभते दृश्य
फुलेरा तो रूपक है उत्तर भारत के गांवों का। फुलेरा ग्राम पंचायत को कैक्टस का फूल इसलिए कहना पड़ रहा है कि आजकल गांव कैक्टस के फूल की तरह खूबसूरत तो दिखते हैं, विलेज टूर के नाम पर आकर्षण पैदा करते हैं, लेकिन उस फूल में कांटे बहुत हैं।
फुलेरा के फूल को जितनी बार छुओ उसके कांटे उतनी बार चुभते हैं। वह कांटे कई रूपों में दिखाई पड़ते हैं, जैसे फुलेरा में विकास की हवा तो चली है, लेकिन प्रधान के घर तक। प्रधान जी के घर में सारे संसाधन मौजूद हैं। गांव को जोड़ने वाली सड़क टूटी पड़ी है। विधायक चंद्रभूषण साफ़ कहता है कि सड़क के लिए बजट नहीं है। पंचायत भवन का इस्तेमाल निजी उपयोग के लिए भी होता है। पंचायत भवन की कुर्सियां प्रधान जी के घर पड़ी हैं। गांव के लिए डिजिटल दुनिया, सीसीटीवी कैमरा, ओडीएफ मिशन और नशा मुक्ति अभियान मज़ाक बनकर रह जा रहा है। गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। बिजली की समस्या बनी हुई है। ग्रामवासी विनोद के लिए एक अदद लैट्रिन सीट उसके लिए सपना सरीखा हो जाता है। बमुश्किल वह हजार या दो हजार का आता है, लेकिन प्रधान जी और सचिव जी उसको सरकारी जाल में उलझा कर रखते हैं। हां, प्रधान जी को उषा प्रियम्वदा की रचना 'पचपन खंभे लाल दीवार' पढ़ते हुए और पिता की संजीदा भूमिका को जीते हुए देखकर बड़ी खुशी होती है।
फुलेरा, कंटीला फूल भले है, लेकिन इस फूल को सींचने वाले माली बड़े प्यारे और सज्जन है। इतने प्यारे और सज्जन की सचिव, सचिव सहायक, प्रधानपति और उप प्रधान की जोड़ी उम्र में बेमेल है, लेकिन उनकी बेजोड़ दोस्ती से रस्क होता है। ऐसा लगता है कि काश की हम सबके भी पास ऐसे निश्चल, सहज और सुंदर दोस्त होते। यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं कि ऐसे दोस्त अमूमन गांवों में ही देखने को मिल सकते हैं। मुस्कुराते माली तो कभी कभी इतना गुदगुदाते हैं कि हंसते हंसते रोना आ जाता है। सचिव और उप प्रधान व्यक्तिगत स्तर पर बेहद संघर्षशील और अकेलेपन के शिकार हैं, लेकिन कहते हैं ना यदि आपके पास दो अच्छे दोस्त हों तो दुनिया की हर मुश्किलें आसान हो जाती हैं।
स्त्री किरदार को केंद्र में रखा जाय तो फुलेरा ग्राम प्रधान मंजू देवी, परधाइन की बिटिया रिंकी और भूषण की बीबी सुनीता रजवार का अभिनय इतना सशक्त है कि लगता है यदि इस सीरीज में ठीक यही किरदार न रखे जाते तो मामला कितना नीरस और उदास हो जाता। अभिनय के स्तर पर स्त्री किरदार ही नहीं सभी ने अपने हिस्से में बेहद चौकसी बरती है। इतनी सहजता और ईमानदारी से सबने अपने किरदार को जिया है कि मन खिल-खिल जाता है।
अभिनय में आंगिक हाव-भाव, संवाद प्रस्तुति और कहानी के अनुकूल बोली का बड़ा मतलब होता है। आंगिक हाव-भाव के लिहाज़ से बनराकस कहे जाने वाले और अपने मकसद से भोले-भाले विनोद के सहारे क्रांति का बिगुल फूंकने वाले भूषण बाबू और विनोद का किरदार मन को छू जाता है। कहानी के अनुकूल बोली वाले मामले में पंचायत सचिव विकास, ग्रामवासी विनोद और विधायक चंद्रभूषण बाजी मार ले जाते हैं। वस्त्र-विन्यास के नजरिए से निर्देशक की बारीक नज़र का कायल हुआ जा सकता है। सभी किरदारों के वस्त्र-विन्यास, साज-सज्जा कमाल का है। ऐसी उम्दा कहानी रचने वाले कथाकार को भी ख़ूब बधाई।
चुभते दृश्य:
1. एक युवा पंचायत सचिव को इतना सज्जन, निरीह और बेबस देखना, वो इसलिए कि आजकल सरकारी योजनाओं की टीम वाले सरकारी सेवक इतने सज्जन, निरीह और बेबस नहीं होते। आजकल पंचायत सचिव कुछ ही दिन में चार चक्के के मालिक बन जा रहें हैं, रूआब अलग।
2. विधायक के यहां जाने पर प्रधान और उनके साथियों का अपनी दुर्गति कराना। दूसरी बार थोड़ी टाइट होते हैं, लेकिन उसमें भी कोई ख़ास प्रतिरोध नहीं है।
3. जिलाधिकारी के रूप में जिस स्त्री ने कार्य किया है उनके भीतर कलेक्टर का तेवर और भंगिमा नहीं दिखती।
4. सीसीटीवी फुटेज के दुरुपयोग को प्रश्रय, चप्पल लौटाने का पूरा दृश्य, अजीब सा अवास्तविक मज़ाक लगता है।
5. पंचायत भवन का दृश्य आते ही बार-बार दिखता है, ग्राम पंचायत-फुलेरा, विकास खंड-फकौली, जनपद-बलिया। और मालूम चलता है कि बलिया के नाम पर केवल अक्षर है, पूरा शूट मध्य प्रदेश का है। बलिया का स्थानीय कुछ भी नहीं।
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