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1857 क्रांति के अप्रतिम योद्धा कुर्मी राजा जयलाल सिंह

Updated: Aug 5, 2022

अंग्रेजी दासता की बेड़ियों को उतार फेंकने के लिए भारतवर्ष में जितने भी संघर्ष हुए उनमें सन् 1857 की क्रांति का स्थान सर्वोपरि है। सत्तावनी क्रांति का केन्द्र बना शहर लखनऊ। नवाबों का शहर, जिसके अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह को देशनिकाला देकर कलकत्ता के मटियाबुर्ज भेज अवध का विलय कर दिया गया था। इससे नाराज बंगाल आर्मी के सैनिकों, नवाबीराज के तालुकेदारों ने जो बिगुल फूंका उसने समूचे देश को मानों गुलामी की तन्द्रा से झिझोड़कर जगा दिया। लखनऊ में इस क्रांति का नेतृत्व वाजिद अली शाह की अपेक्षाकृत कम पसंद बेगम हजरत महल और उनके नाबालिग पुत्र बिजरिस कद्र ने किया। इस रोमांचकारी विप्लव के मूल में कुछ ऐसी शख्सियतें शामिल थी जिनके बिना लखनऊ में सत्तावनी क्रांति का इतिहास इतना चमकदार न दिखता। लेकिन मुख्यधारा के इतिहासकारों ने इन विस्मृत नायकों को समकालीन पुस्तकों के ढ़ेर से, अभिलेखागार की गर्दो - गुबार भरी आलमारियों से बाहर निकालने का प्रयास नहीं किया। ऐसा ही एक विस्मृत नाम कुर्मी शिरोमणि राजा जयलाल सिंह का है।

राजा जयलाल सिंह के महान कुल का उत्थान अत्यन्त साधारण स्तर से हुआ। राजा दर्शन सिंह अपने पिता गरीबदास के साथ लखनऊ आये थे। अवध गजेटियर (खण्ड-2. पृ. 79-80) लिखता है -"करीब 70 साल पूर्व (सन् 1807) गरीबदास नामक एक कुर्मी इस जिले के परगना बिड़हर के पदमपुर के अपने घर से चले। ऐसा कहा जाता है वे अपने युवा पुत्र दर्शन कुर्मी के साथ लखनऊ के लिए निकले थे। परम्परा आगे कहती है कि वहाँ पहुँचने के कुछ समय बाद तक पिता-पुत्र ने किसी निर्माणाधीन महल में मजदूरी करके जीविकोपार्जन किया। लड़का सुदर्शन मुखमण्डल का था और यदि इस विवरण पर विश्वास किया जाये तो उसने तत्कालीन शासक नवाब सादात अली खान का ध्यान खींच लिया और नवाब के आदेश पर उसे जल्दी ही "शैतान की पलटन" नामक नवयुवकों की रेजीमेंट में भर्ती कर लिया गया। समय के साथ बालक दर्शन जमादार बन गया और आगे चलकर जब वह नवाब की रियासत में पहुंचा तो उसे नवाब सादात अली खान ने अपने निजी अर्दली में से एक के रूप में चुना। उसका मुख्य कर्तव्य अपने स्वामी की सैय्या की रक्षा करना था। सादात के बाद उसके वारिस गाजीउद्दीन हैदर के समय (1814-1824) दर्शन सिंह को एक रेजीमेंट की कमान दी गई और जब गाजीउद्दीन को राजा बनाया गया तो उसने अपना पहला सरदार कुर्मी दर्शन सिंह को बनाया जो तब तक राजा' बन चुका था। अगले नवाब •नासिरूद्दीन हैदर के राज्यकाल में राजा के महत्व को बढ़ाते हुए उसे शाही उपस्थिति में बैठने की आज्ञा दी गई तथा उसे गालिबजंग' की अतिरिक्त पदवी से नवाजा गया जिसका तात्पर्य युद्ध विजेता होता है। दर्शन सिंह ने मुहम्मद अली शाह और अमजद अली शाह के समय स्वयं को समृद्ध किया। वह अस्सी साल की उम्र में वाजिद अली शाह के अहद में सन् 1851 में मरा।"


इस दुस्साहसिक गालिबजंग' का जीवन अनेक उलट-फेर से भरा हुआ था। एक समय अनन्त प्रभाव के साथ शाहीप्रिय तो अगले क्षण बन्दी के रूप में साँप बिच्छुओं के साथ। कर्नल स्लीमैन के यात्रा-वृतान्त (एजनीं थ्रू द किंगडम ऑफ अवध, वाल्यूम 1 पृष्ठ-154 से 162) के अनुसार "दर्शन सिंह सन् 1825 तक गाजीउद्दीन हैदर के अत्यन्त प्रिय हो गये थे। वजीर आगामीर के समय उनका प्रभाव तेजी से बढ़ा। बाद में उनकी दखलदाजी से तंग आकर वजीर ने नवाब से शिकायत कर उन्हें अपने भरोसेमंद ताजिउद्दीन के साथ सुल्तानपुर भेज दिया जहाँ कठोर व्यवहार, भोजन की कमी के कारण दर्शन सिंह मौत के मुँह तक पहुँच गये। उनका सारा धन छिन लिया गया। 1827 में गाजीउद्दीन की मृत्यु के बाद •नासिरूद्दीन नवाब व मीर फजल अली वज़ीर बना। दर्शन सिंह को आजाद कर दिया गया। वजीर मेंहदी ने सन् 1831 में दर्शन सिह को दीवान बनाया। वे सन् 1835 तक नासिरूद्दीन हैदर के प्रिय दीवान बने रहे। इसी नवाब ने उन्हें 'राजा' और 'गालिबजग' का खिताब दिया। नासिरूद्दीन हैदर के समय राजा दर्शन सिंह शहर के पुलिस अधीक्षक थे और अपने साथ 300 आदमी लेकर चलते थे।"


कुर्मी राजा दर्शन सिंह के बढ़ते प्रभाव से सभी चिन्तित थे। उनके खिलाफ षडयन्त्र करके यह आरोप लगाया गया कि नवाब को भेजी जाने वाली लड़कियों को पहले वह अपने घर रखते हैं। 7 अक्टूबर 1835 को उन्हें नवाब ने गिरफ्तार करवा लिया। इस घटना का वर्णन कर्नल स्लीमैन ने अपने यात्रावृतान्त में तथा विलियम नाइटन ने किंचित भेद के साथ अपनी रचना-"द प्राइवेट लाइफ ऑफ ऐन ईस्टर्न किंग (1855)" में किया है। अवध गजट में भी 1835 व 1843 में राजा दर्शन सिंह के द्वारा शाही नाराजगी झेलने का उल्लेख मिलता हैं। गालिबजंग को गिरफ्तार करवाकर अयोध्या के राजा दर्शन सिंह (राजा मान सिंह के पिता) को सुपुर्द कर बदले में 3 लाख की घूस ली गई। गालिबजंग को लोहे के पिंजड़े में डालकर शाहगंज किले में मरने के लिए भेज दिया गया, मगर वे चमत्कारी ढंग से बच गये। वे 16 माह शाहगंज किले में बन्द रहे। सन् 1837 में नासिरूद्दीन हैदर को जहर दे दिया गया। मुहम्मद अली शाह नवाब बने तो राजा दर्शन सिंह ने मुक्त होने के लिए चार लाख तथा पद बहाली के लिए तीन लाख रुपये का प्रस्ताव भेजा। उन्हें छोड़ दिया गया। वे कानपुर चले गये। हकीम मेंहदी जब फिर वजीर बनें तो दर्शन सिंह का दीवान पद भी बहाल हो गया। मुहम्मद अली की मृत्यु के बाद 1842 में अमजद अली नवाब बनें। जी०डी० भटनागर के अनुसार सन् 1845 में अमजद अली ने 'अवध सीमान्त पुलिस' का गठन किया, जिसका काम सरहदों की सुरक्षा तथा डकेतों को पकड़ना था। इसके प्रमुख राजा दर्शन सिंह बनाये गये। उनके दल में 500 पैदल व 100 सवार थे। 16 जनवरी 1850 को पकड़े गये डकैतों के साथ कानपुर रोड पर गालिबजंग स्लीमैन से मिले थे। 13 फरवरी 1847 को अमजद अली के मरने पर वाजिद अली शाह नवाब बनें। तब भी दर्शन सिंह अपने पद पर बने रहें। गवर्नर जनरल लाई हार्डिंग की अगवानी के लिए वाजिद अली शाह 3 नवम्बर, 1847 को जब कानपुर के मूसाबाग पहुँचा तो उसके शिविर के प्रभारी गालिबजंग ही थे। शिविर को भव्यता से सजाया गया था तथा सड़कों पर सुर्खी बिछवा दी गयी थी।


राजा दर्शन सिह गालिबजंग की मृत्यु के सम्बन्ध में दो तिथियाँ मिलती हैं। घरेलू फीतनामें के अनुसार वे 19 अप्रैल, 1855 को रकाबगंज वाले मकान में चेचक निकलने से मरे। उनके पुत्र राजा जयलाल सिंह ने बिदूरघाट (ऊपर घाट कनकाजी) पर क्रिया-कर्म व दग्धा किया जबकि कर्नल स्लीमेन और अवध गजेटियर राजा दर्शन सिंह गालिबजंग की मृत्यु 1 मई 1851 को दर्शाते हैं। अवध गजट (1877) लिखता है-"शाही नाराजगी के कारण दर्शन सिंह ने जो रियासत बनाई थी, वह टूट गई और उसमें शामिल गाँव पुराने स्वामियों को पुनः सौंप दिये गये। लेकिन यह नाराजगी अस्थायी वक्त की थी, क्योंकि अवध के विलय के बाद हम मऊ यदुवंशपुर तालुका उसके पुत्र राजा जयलाल सिंह के अधिकार में पाते है।


इस तालुका में कुल 64 गाँव थे। मऊ यदुवंशपुर में 9, पलिया शाहबदी में 3. जनौरा में 47. रानुपाली में 4 तथा देवकली में 2 गाँव थे।" इसके अलावा कहा जाता है कि उन्होंने आजमगढ़ में 41 तथा फैजाबाद में 64 गाँव सहित दरियाबाद और लखनऊ में भी काफी सम्पदा जमा की थी।


राजा दर्शन सिंह की रियासत के सबसे पुराने आठ गाँव तालुका मऊ यदुवंशपुर में सन् 1817 में शामिल हुए। 1819 में पलिया शाहबदी तथा 1820 में रानुपाली के गाँव जुड़े। संभवतः सन् 1817 के आस-पास मऊ शिवाला के शिव मंदिर और कोट का निर्माण कार्य शुरू हुआ। मऊ शिवाला के शिव मंदिर पर लगे द्वारलेख में अप्रैल, 1823 की तिथि अंकित है। अर्थात 1817 से 1823 तक छह साल में यह विशाल मंदिर बना। फैजाबाद-रायबरेली मार्ग पर फैजाबाद मुख्यालय से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर एक बीघा, तेरह बिस्वा, तीन फुट के रकबे में स्थित राजा दर्शन सिंह की एकमात्र सुरक्षित यादगार है। यह मंदिर नागर शैली में बना है। जमीन से शिखर तक इसकी ऊँचाई 170 फुट तथा ऊपर लगा त्रिशूल 32 फुट का बताया जाता है। गर्भगृह में काले संगमरमर का विशाल शिवलिंग है। चारों कोनों के छोटे मंदिरों में भी शिवलिंग तथा मुख्य द्वार पर नवाबी चिन्ह मछली का जोड़ा बना है। मंदिर अष्टकोणीय है। इसकी भीतरी दीवारों पर उसी समय (1817-1823) की पेंटिंग्स हैं। इसमें रामायण-महाभारत के कथानक चित्रित हैं। इन चित्रों में राजा दर्शन सिंह के भी पाँच चित्र बने हैं। दो जगह शेर का वध करते हुए जो रोशन तकी की सूचना के अनुरूप हैं। मऊ-शिवाला बाजार से आठ सौ मीटर दक्षिण में राजा दर्शन सिंह द्वारा निर्मित कोट नष्ट हो चुकी है और उसके स्थान पर खेत बन चुके हैं। यहाँ से समय-समय पर पुराने सिक्के. कड़ाह घोड़े की नाल आदि मिलते रहे है। यहाँ आज भी प्राचीन बरगद का वृक्ष और उसी समय के बने दो इन्दारा प्रमाण हैं। इसी स्थान पर कुर्मी राजा दर्शन सिंह का अयोध्या के ब्राह्मण राजा दर्शन सिंह से विवाद होना बताया जाता है।


राजा दर्शन सिंह ने तीन विवाह किये थे। घरेलू परम्परा के अनुसार सबसे बड़ी रानी से एकमात्र पुत्री हुई। मंझली रानी से दो पुत्र राजा फतेहबहादुर सिंह और रघुबरदयाल हुए तथा सबसे छोटी रानी सुभागी से तीन पुत्र जयलाल, गुन्नी प्रसाद और बेनीमाधव हुए। राजा जयलाल सिंह के मुकदमें की फाइल में प्रायः सभी भाइयों का नामोल्लेख मिलता है। 5 जुलाई 1859 के मुंशी मातादीन के बयान में दर्ज है कि राजा नुसरतजंग राजा जयलाल सिंह के भाई थे। आगे इसी बयान में कहा गया है कि उनके = एक भाई राजा बेनीमाधव जौनपुर व आजमगढ़ का प्रबन्ध देख रहे थे। आगे और खुलासा करते हुए मुंशी मातादीन ने बयान दिया है कि राजा जयलाल सिंह व उनके भाई रघुबरदयाल विलय (1856) के बाद दुश्मन बन गये। रघुबरदयाल और नुसरतजग एक माँ के बच्चे थे जबकि जयलाल सिंह और बेनीमाघव दूसरी माँ से थे। बगावत के समय सभी रकाबगंज में एक ही घर में अपने-अपने कक्षों में रह रहे थे। रघुबरदयाल व जयलाल एक-दूसरे से कोई वास्ता नहीं रखते। नुसरतजंग जो रघुबरदयाल की तरफ है. दोनों से बातचीत रखता है और छोटे भाई जयलाल सिंह की शाखा के दरबार में जाया करते हैं। 29 जून 1859 के बयान में पैदल सेना के मुंशी बाजिद अली ने भी अपने बयान में राजा जयलाल सिंह के भाई के रूप में रघुबरदयाल व नुसरतजंग का नाम लिया है। 13 सितम्बर 1859 में मुकदमें की कारवाही वाले भाग में राजा जयलाल, रघुबरदयाल व नुसरतजंग को भाई तथा इनमें जयलाल सिंह को सबसे बड़ा कहा गया है।

मुस्लिम लेखकों ने कहीं-कहीं जयलाल सिंह का नाम जियालाल भी लिखा है। जयलाल सिंह के जन्म का उल्लेख किसी समकालीन स्रोत में नहीं मिलता। रोशन लाल पटेल ने अपनी कृति "अमर शहीद राजा जयलाल सिंह (पू. 31) में उनका जन्म 31 मई सन् 1803 में होना दर्ज किया है। किन्तु सदर्भ का उल्लेख नहीं किया है। जयलाल सिंह के बचपन के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिल पाती, किंतु बाद के प्रमाणों से स्पष्ट है कि वे शिक्षित एवं युद्धकला की बारीकियों के साथ दरबारी रीति-रिवाज से भली-भांति परिचित थे। जयलाल सिंह के पिता की मृत्यु के पश्चात उनका पद व प्रतिष्ठा दी गई। उन्हें नवाब वाजिद अली शाह के समय राजा का खिताब तथा लखनऊ शहर की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा गया। 7 फरवरी 1856 को अवध का विलय किया गया। उस समय राजा जयलाल सिंह को गंगा के तट पर सेना के कमाण्डर ब्रिगेडियर एफ. डीलर से मिलने अवध के नवाब का दूत बनाकर भेजा गया था। अवध के विलय ने नवाबी दरबार के मातहतों और अस्सी हजार फौजी सिपाहियों को बेरोजगार कर दिया। राजा दर्शन सिंह गालिबजंग का विश्वासपात्र निजी सचिव मुंशी मातादीन विलय के पूर्व तक राजा जयलाल के साथ रहा। विलय के बाद कार्यविहीन होकर राजा स्वयं घर रहने लगे। अत: मातादीन अपने पर रहने लगा।


मेरठ छावनी से उठी क्रांति ने सर्वत्र आग लगा दी। लखनऊ में मड़ियाव छावनी और मूसाबाग में सर्वप्रथम क्राति शुरू हुई। उधर फैजाबाद में बगावत हो गई। सैनिकों ने मौलवी अहमदुल्लाशाह उर्फ डंकाशाह को जेल से बाहर निकाला। उनके नेतृत्व में बागी लखनऊ की ओर बढ़े। हेनरी लारेन्स ने फौज के साथ बागियों को चिनहट में रोकने का प्रयास किया, मगर हार कर रेजीडेन्सी लौट गये। क्रांतिकारियों ने लखनऊ शहर में प्रवेश किया और अव्यवस्था का लाभ उठाकर व्यापारियों, महाजनों तथा पुराने सरदारों को लूटना शुरू कर दिया। राजा जयलाल ने अपने बयान में कहा है कि उनका घर भी लूट लिया गया। अहमदुल्लाशाह ने तारोंवाली कोठी (वर्तमान स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की मुख्य शाखा) में अपना मुख्यालय बनाया। अंग्रेज रेजीडेन्सी और मच्छी भवन (वर्तमान के. जी. एम.यू. का पूर्ववर्ती भवन) में कैद हो गये थे। अहमदुल्लाशाह ने सैन्य चौकियाँ स्थापित करने की नाकामयाब कोशिश की। यदि लूटपाट को तुरन्त न रोका जाता तो आमजन क्रांति के प्रति शंका से भर उठते। किसी मध्यस्थ की खोज की जाने लगी, जो नवाब परिवार में पेठ रखता हो और क्रांतिकारियों से भी सहानुभूति रखता हो। अन्ततः राजा जयलाल का नाम आया। यहाँ दो मत मिलते हैं। मुंशी मातादीन का बयान है कि राजा जयलाल को उनके घर से कोई व्यक्ति बुलाकर ले गया जबकि मुशी वाजिद अली का कथन है कि राजा जयलाल स्वेच्छा से सैन्य अफसरों के पास गये। मुंशी मातादीन के अनुसार मंगलवार को चिनहट की लड़ाई हुई। बृहस्पतिवार को राजा जयलाल बागी सेना के अफसरों के पास गये। घर लूटे जाने की शिकायत पर कैसर-उत तवारीख के अनुसार सैन्य अफसरों ने सांत्वना दी कि वे इस ओर से निश्चिन्त रहें, उन्हें इससे दस गुना ज्यादा फायदा दिया जायेगा।


सैनिकों ने आपस में लड़ना और लूटपाट करना जारी रखा। एक दिन जब कर्नलगंज की जहाँगीरबख्श कम्पनी के तिलंगे अन्य रेजीमेंट से भिड़ गये, उसी दिन राजा जयलाल ने तय किया कि दरबार का गठन किया जाये। सैन्य अफसरों ने गठन के पूर्व ही राजा साहब को ऐसे दरबार का मुख्य अफसर बना दिया। दरोगा मीर वाजिद ने 8 जुलाई 1859 के अपने बयान में कहा कि चूँकि राजा साहब शहर के सुरक्षा के जिम्मेवार थे, अतः दूसरे व तीसरे रोज वेस्टन्स हाउस (मिर्जावाली कोठी) में सैन्य अफसरों का जो दरबार हुआ, उसमें राजा जयलाल को तत्काल बुलाया गया। राजा ने जवाब दिया कि वे मिर्जा अलीरजा और हैदर हुसैन के बिना कुछ भी नहीं कर सकते। दोनों को खोजकर जबरदस्ती लाया गया और क्रमशः कोतवाल तथा गश्त का प्रभारी (रविन्द) बनाकर उनके ऊपर 12वीं देसी पैदल के रिसालेदार कासिम खाँ को रखा गया तथा अलीरजा खाँ के मकान में रहने का आदेश दिया गया। कोतवाल और रविन्द अनिच्छुक बने रहे। उनका मानना था कि बिना हाकिम नियुक्त किये शहर का प्रशासन नहीं चलाया जा सकता। सभी महसूस कर रहे थे कि शासन-प्रशासन का मुखिया बनाये बिना यह जंग नहीं लड़ी जा सकती।

कमालुद्दीन हैदर के अनुसार पहले मलिका अहद के लड़के मिर्जा दारा सितवत पर बात उठी। मलिका ने तीन लाख का नजराना देने से मना किया। और दारा ने भी हाथ खड़े कर दिये। सुलेमान कद्र ने मना कर दिया। तब राजा जयलाल से नाम माँगा गया। अन्त में राजा जयलाल और मम्मू खाँ ने आपस में तय किया और हजरत महल के दरवाजे पर गये। वहीं वाजिद अली शाह की सारी बेगमें जमा हुई। बिजरिस कद्र का नाम रखा गया तो तरह-तरह की बातें होने लगी। लेकिन मुंशी वाजिद अली के अनुसार राजा साहब ने सबसे ज्यादा रूचि बिजरिस के नाम में ली। वे बेगम से कागज लेकर बागी अफसरों के पास गये और उस पर दस्तखत करवाया। बेगम ने इस कागज को बतौर सनद रखा, वह राजा से बेहद खुश थीं। अन्य बेगमों ने इस कागज पर दस्तखत या मुहर नहीं की। तारा कोठी में अफसरों की कौंसिल में राजा जयलाल ने बेगम व वाजिद अली शाह के भाई मुस्तफा अली खाँ का कागज पढ़ा। मुस्तफा का कागज वापस कर दिया गया। अफसरों ने बिजरिस कद्र की ताजपोशी पर सहमति जता दी। इसकी सूचना मम्मू खाँ को दी। अफसरों को चाँदीवाली बारादरी में बैठाया गया। हिसामुद्दीन बिजरिस को घोड़े पर चढ़ा कर ले आया। सभी ने उसे सलाम किया। सूर्यास्त से थोड़ा देर पूर्व बागी अफसरों ने पाँच सैय्यदों के हाथ बिजरिस के सिर पर मंदील बंधवा दी। ताजपोशी के समय जो शर्ते लिखवाई गई थी उसे राजा जयलाल व राजा ज्वाला सिंह ने साफ अक्षरों में कराया। राजा जयलाल सिंह ने इन शर्तों को हाथ ऊपर उठाते हुए ऊंची आवाज में पढ़कर सुनाया था। मुहर के बाद बेगम ने कागज हसन खाँ के हकीम के हाथों भेजा, जिसने गलती से गिरा दिया, कागज गुम हो गया। अफसरों ने कहा इससे फर्क नहीं पड़ता। बशर्ते राजा जयलाल इसकी जमानत लें। ऐसा ही हुआ। इस प्रकार राजा जयलाल सिंह ने विप्लव से उत्पन्न अव्यवस्था को कम करने और फिरंगियों से मोर्चा लेने के वास्ते बागी दरबार का गठन कराने में अहम भूमिका अदा की।


मम्मू खाँ व राजा जयलाल के बीच पद को लेकर विवाद हुआ। मुंशी वाजिद अली के अनुसार राजा साहब को दीवानखाने का दरोगा बनाया गया उन्होंने अस्वीकार कर दिया तो यह पद मम्मू खाँ को दे दिया गया। खैर मामला सुलझ गया। राजा जयलाल को फैजाबाद में रूदौली का, आजमगढ़ और जौनपुर का इलाका दिया गया। चार रेजीमेण्टें, एक बारुदखाना एक रिसाला और दरियाबाद का इलाका भी दिया गया। शर्फुद्दीला को नायब मम्मू खान को दीवानखाना तथा महाराज बालकृष्ण को दीवान की खिलअत अदा की गई। दिल्ली की तर्ज पर राजकाज के सुचारू संचालन के लिए दो समितियों का गठन किया गया। सामान्य प्रशासन के लिए बारह सदस्यों की पहली व सैन्य प्रशासन के लिए चौदह सदस्यों वाली दूसरी समिति। इन दोनों के एकमात्र सदस्य राजा जयलाल सिंह थे। रूदाशु मुखर्जी के अनुसार इन दोनों समितियों में राजा जयलाल का व्यक्तित्व सब पर भारी था। वे दोनों समितियों तथा बेगम के बीच सम्पर्क स्थापित करते थे। किसी भी भाग से आने वाली नई रेजीमेंट राजा जयलाल के अधीन होती। बेगम व सेना के बीच का सारा संव्यवहार राजा साहब के माध्यम से होता। उनका एक पदनाम कलेक्टर भी था, जो आज के कलेक्टर से सर्वथा भिन्न पद था। बागी सरकार के गठन व अधिकारियों की नियुक्ति हो जाने के बाद जग व प्रशासन चलाने की तैयारी शुरू हो गई। जमा पूंजी जल्द ही खत्म हो गई। हजरत महल व मम्मू खाँ ने हिसामुद्दौला और मिफ्ताउद्दौला से खजाने के बावत पूछा तो पता चला मात्र चार लाख की चाँदी है। जब खर्च के लिए पैसों की कमी पड़ी तो शहर के अमीरों की सूची बनाई गई। विश्वस्त खबरी से सूचना लेकर घर खोदे जाने लगे। मम्मू खान, राजा जयलाल व खबरी ने नवाब का घर खोदकर पाँच लाख निकाला। इसे हाथियों व बैलगाड़ियों पर लाद कर लाकर बेगम को सौंप दिया गया। दीवान नकी अली खाँ ( नवाब वाजिद के ससुर) का घर खोदकर 72 लाख का सामान निकाला गया। थोड़े ही समय में मम्मू व जयलाल ने एक करोड़ तीस लाख का खजाना बेगम को दिया। राजा जयलाल पैसों की कमी दरियाबाद से लगान वसूली करके पूरा करने का प्रयास भी करते रहे। 16 अगस्त 1857 को बेनीमाधव को आजमगढ़ जौनपुर का नाजिम बनवाया। वहाँ से भी धन प्राप्त करने का प्रयास किया गया। बागी सैनिकों को 6 की जगह दूना 12रु का वेतन दिया गया। सेना को समय से वेतन मिलने लगा। मम्मू व जयलाल का प्रभाव बढ़ा।


राजा जयलाल जंगी अफसर के साथ दरबार के अधीक्षक भी थे। दरबार लगवाने, युद्ध की तैयारी करने, घायलों व मृतकों का पता लगाने,घायलों की सेवा करने, खुफियागिरि कराने, धन एकत्र करने, अंग्रेजों को पकड़ कर रखने के लिए जेल बनाने, दुर्गीकरण कराने, सेना को गोला बारूद व रसद देने, मजूर व हरकारा नियुक्त करने और शहर की सरकार चलाने के सारे सैन्य-असैन्य कार्य राजा जयलाल के ही जिम्मे थे। सीढ़ी से रूई तक की व्यवस्था राजा जयलाल करते थे। सेना भर्ती भी वही देखते थे। जब लाइन में कचहरी होती तो राजा साहब अकेले जाते। जब महल में कचहरी होती तो सभी जाते। रकाबगंज में गुलाम हुसैन के इमामबाड़े में चार माह तक जेल रही। उसके इंचार्ज भी राजा जयलाल ही थे। बेलीगारद से भागे या देहातों से पकड़ कर लाये अंग्रेज जेल में रखे जाते। राजा साहब के भतीजे रामशरण दरोगा, इन कैदियों के रसद का इंतजाम करते। यहाँ धौरहरा तथा मितौली से लाये गये अंग्रेज रखे गये थे। 24 सितम्बर को हैवलॉक के लखनऊ पहुंचाने के पूर्व मम्मू खाँ ने धौरहरा पार्टी के 22-23 लोगों को मंगाकर इनमें से 15 की हत्या कर दी। इसी तरह 19 नवम्बर को जब आउट्रम दिलकुशा तक पहुँच गया. तो मितौली की पार्टी को भी कत्ल कर दिया गया।


कानपुर में हारकर नाना पेशवा लश्कर सहित लखनऊ की ओर बढ़े। वे फतेहपुर चौरासी (उन्नाव) में रूककर बेगम की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे। बेगम की अनुमति से राजा साहब के भाई रघुबरदयाल उन्हें ससम्मान लखनऊ ले आये। 20 सितम्बर 1857 को राजा जयलाल नाना से स्वयं दौलतखाना में मिले। उसी दिन मदुरी (आजमगढ़) का युद्ध हारकर उनके भाई बेनीमाधव अतरौलिया होते लौटे। राजा जयलाल की रेजीमेंट बेलीगारद को घेरने में लगी थी। उनके पास दो हजार पैदल और 6-7 बन्दूकें थीं। कानपुर से अंग्रेजों के आगमन की संभावना बढ़ जाने पर अपनी पलटनों के साथ राजा जयलाल सिंह शहर के नाका पर गये। उस •मार्ग पर मोर्चा बनवाना शुरू किया व सन्तरी गश्त चौकस कर दी गई। राजा ने चिनहट व कैसरबाग में सिपाही सन्तरी लगा दिये। सारा निर्माण व मरम्मत कार्य वे स्वयं देख रहे थे। वे तालकटोरा में कर्बला पर रात-दिन रहकर व्यवस्था करते रहे। कभी घर नहीं गये। उनके अधीक्षण में शिवदीन सिंह व रिसालेदार मिश्री सिंह कानपुर रोड पर गश्त करते थे। इस दौरान पहले एक सिपाही का सिर काटकर भेजा गया। फिर उन्नाव सीमा पर स्थित गाँव बनी के पास 18-19 नवम्बर को टेलीग्राम का तार बिछा रहे हैरिगटन व देवरे को रिसालेदार मिश्री सिंह के आदमियों ने दौड़ा लिया। हैरिगटन भाग गया। देवरे का सिर काटकर राजा जयलाल सिंह के पास भेजा गया। जिसे अपने दामाद बाबू जयराम सिंह के साथ एक टोकरें में कुली के सिर पर रखकर बेगम के पास भेजा गया। इसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई।


अंग्रेजी फौज आलमबाग पहुँचने वाली थी, आउट्रम को रोकने के लिए दरबार हुआ। जब मुकाबले का समय आया तो दुगुना वेतन ले रहे बागी • सैनिक बगले झाँकने लगे। राजा जयलाल सिंह हमलों में स्वयं लड़ा करते थे। आलमबाग के युद्ध में वे राजा मान सिंह के साथ लड़े। जब अंग्रेजी तोपखाने ने उन्हें बेबस कर दिया तो वे लोग बैठोली होकर निकल गये। राजा जयलाल ने बाराबंकी के जंगलों से गुरिल्ला युद्ध जारी रखा। रोशन तकी (लखनऊ 1857 द टू वार्स एट लखनऊ) ने लिखा है कि राजा जयलाल की अन्तिम लड़ाई जनरल होपग्रांट के साथ 24 मार्च, 1858 को कोरेज (कुर्सी) में हुई थी जिसमें उनके 130 सिपाही मारे गये थे। राजा जयलाल सिंह के भाई फतेहबहादुर नुसरतजग फैजाबाद में शहीद हो गये । थे। बेनीमाधव बवण्डरा के जंगलों में भूमिगत हो गये थे। राजा जयलाल सिंह के दामाद बाबू जयराम दरगाह पर मारे गये थे।। अक्टूबर, 1858 को विक्टोरिया ने आममाफी की घोषणा की। फरवरी, 1859 में बेगम हजरत महल नेपाल चली गई। राजा जयलाल छुपकर घर पर रहने लगे थे। उनका सम्बन्ध रघुबरदयाल से पहले से खराब था। अवध के विलय के समय से ही सम्पत्ति का झगड़ा चल रहा था, अतः सम्पत्ति बचाने के लालच में - रघुबरदयाल ने अंग्रेजों के सामने पेश होकर उनकी मदद शुरू कर दी। मिस्टर देवीप्रसाद की कोर्ट ने राजा जयलाल सिंह की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर रखा था। सम्भवत जून 1859 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा ट्रायल के पधात 24 सितम्बर 1859 को राजा जयलाल सिंह के विरुद्ध चार्जसीट तैयार हुई। जेल में उनसे मशक्कत करायी गयी। उनका मामला सेशन कोर्ट में चला। उनके मातहत रहे मीर वाजिद अली, मीर हसन उर्फ हस्सू, मीर दायम अली ने विरोध में गवाही दी। उनपर अनेक आरोप थे जैसे बगावत का नेतृत्व करना, बागी सरकार का गठन करना, हत्यारों को सहयोग देना, बेगम व बागी अफसरों के मध्य प्रवक्ता का काम करना, राजद्रोही नाना पेशवा का सहयोग करना, जेल बनाकर अंग्रेजों तथा उनके अनुयायियों को कैद करना तथा ऊंचा ओहदा धारण करना। अवध गजट के अनुसार- "राजा जयलाल पर अन्य के साथ मिस्टर ग्रीन, मिस जैक्सन, मिस्टर रोजर, मिस्टर बापतिस्त जान्स, मि० कैरिव, मि० सुलीवन, मि० फिलो (पागल) सहित अन्य क्रिश्चियनों तथा महमूद खान कोतवाल सहित 22-23 आदमियों को 24 सितम्बर 1857 को हत्या करने में सहयोग तथा दुष्प्रेरण का आरोपी पाया गया।" एक सप्ताह के ट्रायल के बाद उन्हें सजा-ए-मौत दी गई। अपनों की गद्दारी से राजा साहब का हृदय भंग हो गया था।


खानदानी फौतनामें के अनुसार "1 अक्टूबर 1859 (शनिवार) को मकान दरे दौलत के दरवाजा कलान उत्तर सुबह 6 बजे इमली के पेड़ से फाँसी दी गयी। सिटी मजिस्ट्रेट मौके पर मौजूद था।" कमालुद्दीन हैदर ने आँखों देखा विवरण प्रस्तुत किया "जयलाल सिंह को शहर के हजारों तमाशबीनों की मौजूदगी में ठीक उसी जगह फाँसी दी गयी जहाँ पैट्रिक ओर की हत्या की गई थी। राजा ने अपने गले में फाँसी का फंदा खुद डाला। उनकी लाश को डेढ़ रुपये के कफन में लपेट कर उसी रम्ना (बाग) के बाजू वाली मिट्टी में दबा दिया गया।" घर वालों को राजा जयलाल सिंह की लाश भी नहीं दी गई। बाद में उनकी विधवा ने बनारस जाकर लिंगदाह •अर्थात पुतला फूंककर दाहसंस्कार किया। रोशन लाल पटेल के अनुसार राजा जयलाल के दो विवाह हुए थे। पहली पत्नी देवकी से एक पुत्री श्याम कुँवर हुई। जिसका विवाह बाबू जयराम सिंह से हुआ। राजा साहब दामाद को बेटे से ज्यादा मानते थे। अंग्रेजों ने बाबू जयराम को दरगाह पर गोली मारी थी। दूसरी पत्नी सुधा से एक पुत्र ठाकुर प्रसाद हुए। ठाकुर प्रसाद से सेंगर प्रसाद और नृसिंह हुए

अवध गजट के अनुसार-"राजा जयलाल की सम्पत्ति जिसमें गवर्नमेण्ट पेपर भी थे जब्त कर लिया गया तथा संदिग्ध राजभक्ति के कारण उनकी रियासत राजा रूस्तमशाह को सौंप दी गई। इस समय ( 1877) उनका पुत्र ठाकुर प्रसाद केनिंग कालेज (वर्तमान लखनऊ विश्वविद्यालय का पूर्ववर्ती) का छात्र है। जयलाल सिंह के छोटे भाई रघुबरदयाल और बेनीमाधव जो स्वयं भी बागियों के नेता थे और जिला आजमगढ़ में रहते हैं उनके पास अभी भी क्रमश 218000 तथा 56000/- रु मूल्य के गवर्नमेण्ट पेपर है। जिससे उन्हें क्रमश 9000रु और 2200रु की सलाना आमदनी होती है। जब हमारी सेना में 1857 में नाना को गंगा के पार खदेड़ दिया था तो उन्हें लाने के लिए रघुबरदयाल को भेजा गया था।" अतरौलिया का किला लागडेन ने ध्वस्त करा दिया था। उनके भाई बेनीमाधव लम्बे समय तक भूमिगत रहे। बाद में बवंडरा में खेती करके रहने लगे थे। रकाबगंज वाली कोठी भी सरकार ने हस्तगत कर नीलाम कर दी थी। मिर्जा गालिब के एक पत्र से पता चलता है कि बाद में इसी कोठी में मुंशी नवलकिशोर का प्रेस चल रहा था।


लखनऊ में विकास प्राधिकरण ने चाइना बाजार के त्रिकोण में स्थित उद्यान का नामकरण-" अमर शहीद जयलाल सिंह पार्क" कर दिया है। यह स्थान मेट्रो के के डी. सिंह बाबू स्टेडियम स्टेशन के पास स्थित है। यहाँ । अक्टूबर 2010 अर्थात राजा साहब की फाँसी के 151 साल बाद उनकी काल्पनिक आदमकद प्रतिमा तथा दीवार पर उसका दृश्य अंकित कराया गया। प्रतिमा का अनावरण नेपाली मंत्री दानबहादुर चौधरी से कराया गया। जिस स्थान पर शहीद जयलाल सिंह को दफन किया गया था वहाँ स्मारक खड़ा कर उस पर उनका संक्षिप्त जीवनवृत्त अंकित कराया गया। जिस इमली के पेड़ पर राजा साहब को फाँसी दी गई वह आज भी यथावत है। स्मारक पर छाजन बनाते समय ठेकेदार ने वह डाल जरूर कटवा दी जिस पर इस अप्रतिम महानायक को फाँसी दी गई थी। यहाँ कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। प्रत्येक वर्ष अक्टूबर को बेनीमाधव के वंशज राजेन्द्र प्रसाद सिंह नंगे पाँव अतरौलिया से आकर यहाँ पूजा करते हैं। उनकी माता सावित्री देवी का 80 साल की आयु में पिछले साल निधन हो गया। उन्हें परिवार का इतिहास ज्ञात था। वे राजा दर्शन सिंह गालिबजंग द्वारा 1823 में निर्मित कराये गये मऊ शिवाला के शिव मंदिर पर भी जाया करती थी। हालाँकि अब यह मंदिर दियरा स्टेट (सुल्तानपुर) के रुस्तमशाह के वंशजों की व्यक्तिगत सम्पत्ति है। हाल में स्थानीय लोगों ने 15 लाख से ज्यादा खर्च कर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया है। यह मंदिर अत्यन्त दर्शनीय है। उल्लेखनीय है कि 27 सितम्बर 2021 सोमवारद्ध को केन्द्र सरकार की ओर से अमर शहीद राजा जयलाल सिंह पर डाक टिकट भी जारी कर दिया गया है।


अन्तत ऐसे महान योद्धाओं पर कथा-कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, फिल्में लिखी जानी चाहिए। जिससे युवा पीढ़ी आजादी की कीमत समझ सके और अपने शहीदों का यथेष्ट सम्मान कर सकें।


श्रोत- क्षेत्रिय अभिलेखागार इलाहाबाद आजमगढ़ जिला बस्ता से लिया गया है|


मूल लेखक -उ.प्र कैडर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी प्रताप गोपेन्द्र हैं।


सम्पादन- शिवकुमार शौर्य संस्कृति विभाग लखनऊ





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