देखना
उस तरह मत देखना किसी को
जिस तरह
नदी को देखता है व्यापारी
हरे जंगलों को देखते हैं विकास के नायक
उनकी तरह भी नहीं
जिनकी निगाह में स्त्री केवल देह है
![](https://static.wixstatic.com/media/2af530_3f89d2f2eb6d49f29de733ed15ade917~mv2.jpg/v1/fill/w_400,h_225,al_c,q_80,enc_auto/2af530_3f89d2f2eb6d49f29de733ed15ade917~mv2.jpg)
नदी जानती है
व्यापारी देखता है नदी का पानी
उस पानी की कीमत
नदी को सुखा देने के बाद उस ज़मीन का मोल
हरे जंगल जानते हैं
विकास के नायक
पेड़ों को रौंदकर
खड़ा कर देंगे कंक्रीट का जंगल
स्त्रियां जानती हैं
स्त्री को देह की नज़र से देखने वाले
कामुक और कुंठित ही नहीं कार्पोरेट भी होते हैं
कार्पोरेट स्त्री देह को विज्ञापन की नज़र से देखता है
कार्पोरेट की नज़र में उसकी देह
विज्ञापन की कसौटी है
मांसलता की वस्तु है सौंदर्य की नहीं
नदी चाहती है
जो आँखें उसकी ओर उठे
वो देख पाए तो देखे
उसका बहाव और सौंदर्य
अतिक्रमण और अवहेलना
और उसकी ठंडी पड़ी धार
स्त्री चाहती है,
उसे देखना ही है तो देखा जाय
उसके हिम्मत और जुनून को
उसके श्रम सौंदर्य को
वो चाहती है, उसकी आँखों में देखा जाय
जिसमें उसकी राग के हर रंग दर्ज़ हैं
सच तो यह है कि हर कोई चाहता है
उसे देखा जाय मानवीय नजर से
जैसे, मानव समाज को कभी देखा था
बुद्ध, मार्क्स, गांधी, टैगोर और अंबेडकर ने
मदर टेरेसा, ज्योतिबा राव फूले ने
जैसे देखते रहें हैं
गोर्की, प्रेमचंद और टॉलस्टाय
बच्ची और मां
_____
आठ साल की बच्ची
चालीस की मां
ठंड का मौसम
रजाई में दुबकी बच्ची
निहार रही थी
झाड़ू लगाती
बर्तन धोती
खाना बनाती
टिफिन पैक करती
पापा के कपड़े इस्त्री करती
उनके जूते पालिश करती
मां की हलचल
वो देख रही थी
इन सबके बीच मां खो गई थी
शून्य में या न जाने कहां
अचानक मां के हाथों
टूट जाता है एक कप
नौकरी वाले पापा जाग जाते
मां को देते हैं सैकड़ों गालियां
मां कुछ नहीं बोलती
आंसू बहाती
बच्ची को निहारती
तभी बच्ची पूछ लेती
मां!
क्या मुझे भी जीना होगा इसी तरह
सबकी चिंता, उस पर भी गालियां
बच्ची की आंखों से आसूं ढुलक आता है
लेकिन मां तो मां
बच्ची की पोछती है आंसू
फ़िर तुरंत तैयार होती
आख़िर उसे भी तो ऑफिस जाना था!
सृष्टि की संचालिका
सपाट सड़क पर चलते हुए
मीलों केवल रेगिस्तान देखा
न पानी, न पेड़, न बस्तियां देखीं
देखा सरपट चली आ रही एक स्त्री
सिर पर पानी का घड़ा लादे
जीवन बचाने की मुहिम में शामिल थी
यही वही जीवनदात्री स्त्री थी
जिसे इतिहास में
सृष्टि की संचालिका कहा जाना था
उसे मात्र एक पति की पत्नी कहा गया
मनु की श्रद्धा, राम की सीता, बुद्ध की यशोधरा
पत्नी की संज्ञा से विहीन स्त्रियां
उसी इतिहास में सृष्टि की संचालिका वही स्त्रियां
कहीं गईं वेश्या, कुलटा और चरित्रहीन
~ डॉ. धीरेंद्र प्रताप सिंह
युवा अध्येता एवं रचनाकार
*यूजीसी नेट-जेआरएफ की फेलोशिप प्राप्त
*ICSSR की पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप प्राप्त
*एम.फिल, डी.फिल (पी-एच.डी)
*एनबीटी से तीन अनूदित पुस्तक प्रकाशित
*दो संपादित पुस्तक प्रकाशित
*आकाशवाणी, प्रयागराज से वार्ता प्रसारित
*विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा सहित कई संस्थाओं से सम्मानित
*युवा सृजन संवाद मंच का संचालन
*धवल उपनाम से कविता लेखन
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